Growth And Development Notes In Hindi (Complete CDP Notes)

Growth And Development Notes In Hindi

(वृद्धि और विकास)

आज हम आपको Growth And Development Notes In Hindi (वृद्धि और विकास) के नोट्स देने जा रहे है जिनको पढ़कर आपके ज्ञान में वृद्धि होगी और यह नोट्स आपकी आगामी परीक्षा को पास करने में मदद करेंगे | ऐसे और नोट्स फ्री में पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट पर रेगुलर आते रहे, हम नोट्स अपडेट करते रहते है | तो चलिए जानते है, वृद्धि और विकास के बारे में विस्तार से |


वृद्धि और विकास की अवधारणा  

(Concept of Growth and Development)

व्यक्ति की वृद्धि और विकास की प्रक्रिया का अध्ययन शिक्षा मनोविज्ञान का एक महत्वपूर्ण विषय है । क्योकि वृद्धि और विकास को जाने बिना एक अध्यापक विद्यार्थियो की सहायता नहीं कर सकता और न ही अपनी शिक्षण व्यवस्था को व्यवस्थित ही कर सकता है । अतः वृद्धि व विकास के विभिन्न पहलुओ पर विचार करना जरूरी है ।

वृद्धि का अर्थ :

  • वृद्धि का अर्थ सामान्यतः मानव शरीर के विभिन्न अंगों के विकास तथा अंगों के कार्य करने की क्षमता से समझा जाता है। अंगों के इसी विकास का परिणाम कार्य करने की क्षमता मानी जाती है। अंगों के इस विकास के फलस्वरूप उनका व्यवहार भी किसी न किसी रूप में प्रभावित होता है। इस प्रकार वृद्धि का अर्थ है – शरीर की वृद्धि
  • वृद्धि का अर्थ है भौतिक वृद्धि। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, उनके शरीर के अंग बढ़ते जाते हैं। सामान्यतः वृद्धि का अर्थ बच्चे के शरीर के विभिन्न अंगों के विकास और अंगों के कार्य करने की क्षमता से लिया जाता है। उस वृद्धि को मापा और बोला जा सकता है। व्यक्ति के शरीर के इन अंगों के विकास के फलस्वरूप उसका व्यवहार किसी न किसी रूप में प्रभावित होता है।

विकास का अर्थ :

  • विकास परिपक्वता की ओर ले जाता है, अर्थात विकास परिपक्वता की एक प्रक्रिया है, विकास उस प्रक्रिया को संदर्भित करता है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के आंतरिक और बाहरी पहलुओं में कुछ परिवर्तन होते हैं। जीवन विकास एक गुणात्मक परिवर्तन है। बच्चे के शरीर की वृद्धि के साथ-साथ उसका मानसिक विकास भी होता रहता है। वास्तव में विकास शब्द का प्रयोग उन सभी प्रकार के परिवर्तनों के लिए किया जाता है जो कार्यकुशलता और व्यवहार में प्रगति की ओर ले जाते हैं। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि विकास की अवधारणा वृद्धि से व्यापक है।
  • इसका अर्थ है कि वृद्धि विकास के अर्थ में शामिल है। यदि वृद्धि मात्रात्मक परिवर्तनों को संदर्भित करती है, तो विकास मात्रात्मक परिवर्तनों को संदर्भित करता है, आमतौर पर वृद्धि और विकास की प्रक्रिया साथ-साथ चलती है।

विकास की प्रकृति : विकास की प्रकृति को निम्न प्रकार से समझ जा सकता है

  1. विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है ।
  2. विकास का अर्थ वृद्धि की अपेक्षा अधिक व्यापक है।
  3. विकास गुणात्मक परिर्वतनों की ओर संकेत करते है ।
  4. वृद्धि व विकास की प्रक्रियाए साथ साथ चलती है ।
  5. विकास में सभीं प्रकार के परिर्वतन सम्मिलित हो जाते है |

परिभाषा:

विकास और विकास एक व्यक्ति में जन्म से वयस्कता तक होने वाले प्रगतिशील परिवर्तनों को संदर्भित करता है। इसमें शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक पहलुओं में व्यवस्थित और संगत परिवर्तनों की एक श्रृंखला शामिल है, जिससे नई विशेषताओं और क्षमताओं का अधिग्रहण होता है।

1. Harlock की परिभाषा: “विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन् वह व्यवस्थित तथा ‘समनुगत’ परिवर्तन है जिसमें कि प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है,जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएंँ व योग्यताएंँ प्रकट होती हैं।”

  • विकास विकास तक ही सीमित नहीं है; यह वयस्कता की ओर एक व्यवस्थित और अनुकूल परिवर्तन है।
  • प्रगतिशील परिवर्तन नियमित रूप से और धीरे-धीरे होते हैं।
  • उदाहरण: शैशवावस्था से वयस्कता तक बच्चे के विकास में विभिन्न परिवर्तन शामिल होते हैं जैसे शारीरिक विकास, संज्ञानात्मक विकास और नए कौशल और क्षमताओं का अधिग्रहण।

2. James Drever की परिभाषा: “विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में प्राणी में सतत् रूप से व्यक्त होती है।यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूण अवस्था से लेकर प्रौढा़वस्था तक होता है।यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है।यह प्रगति का मानदंड है और इसका आरंभ शून्य से होता है।”

  • विकास एक जानवर में प्रगतिशील परिवर्तन की एक सतत अभिव्यक्ति है।
  • इसमें भ्रूण अवस्था से वयस्कता तक परिवर्तन शामिल हैं और इसे प्रगति के रूप में मापा जाता है।
  • उदाहरण: अंडे से कैटरपिलर, प्यूपा और अंत में एक वयस्क तितली में तितली का विकास प्रगतिशील परिवर्तन की निरंतर अभिव्यक्ति को प्रदर्शित करता है।

3. Herbert Sorenson का दृष्टिकोण: Herbert Sorenson ने तो शारीरिक वृद्धि को बड़ा भारी होना बताया है।

  • भौतिक विकास को पर्याप्त बताया गया है।
  • उदाहरण: युवावस्था के दौरान, किशोरों को महत्वपूर्ण शारीरिक विकास का अनुभव होता है, जिसमें ऊंचाई में वृद्धि, मांसपेशियों का विकास और शरीर के आकार में परिवर्तन शामिल हैं।

4. H.V. Meredith के विकास और विकास के साक्ष्य: एच . वी . मेरेडिथ ने वृद्धि व विकास के 5 प्रमाण बताएं हैः

  1. आकार (Size)
  2. सँख्या (Number)
  3. प्रकार (Kind)
  4. स्थिति (Position)
  5. सापेक्षित आकार (Relative Size)
  • आकार, संख्या, प्रकार, स्थिति और सापेक्ष आकार वृद्धि और विकास के संकेतक हैं।
  • उदाहरण: मनुष्य के हाथ के विकास में, आकार में वृद्धि, उंगलियों और नाखूनों की वृद्धि और हाथ की संरचना का विकास, वृद्धि और विकास को दर्शाता है।

5. Frank की परिभाषा: फ्रैंक के अनुसार, ‘शरीर के किसी विशेष पक्ष में जो परिवर्तन आता है उसे वृद्धि कहते है।

Frank ने वृद्धि को शरीर के किसी विशेष भाग में होने वाले परिवर्तन को वृद्धि कहते हैं” के रूप में परिभाषित किया है।

विकास से तात्पर्य उस परिवर्तन से है जो शरीर के किसी विशिष्ट अंग में होता है।
उदाहरण: किसी व्यक्ति के शरीर में हड्डियों, मांसपेशियों और अंगों की वृद्धि विकास के दौरान विशिष्ट शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तन को दर्शाती है।

विकास की प्रकृति:

  • विकास में आकार और वजन में वृद्धि शामिल है।
  • विकास मात्रात्मक है, और भौतिक परिवर्तनों के संदर्भ में औसत दर्जे का है।
  • विकास एक सामान्य पैटर्न का अनुसरण करता है लेकिन अलग-अलग व्यक्तियों में भिन्न होता है।
  • विकास एक सतत प्रक्रिया नहीं है; यह चरणों में होता है।
  • विकास की गति एक समान नहीं है; यह विभिन्न चरणों में भिन्न हो सकता है।
  • मानसिक विकास की अपेक्षा शारीरिक विकास अधिक प्रत्यक्ष और स्पष्ट होता है।
  • विकास आनुवंशिक कारकों (आनुवंशिकता) और पर्यावरणीय कारकों दोनों से प्रभावित होता है।
  • पुरुषों की तुलना में महिलाएं धीमी गति से बढ़ती हैं।
  • शैशवावस्था के दौरान विकास सबसे तेज होता है और वयस्कता के करीब पहुंचने पर धीमा हो जाता है।
  • शारीरिक और मानसिक विकास के बीच घनिष्ठ संबंध है, प्रत्येक दूसरे को प्रभावित करता है।

उदाहरण: एक बच्चे की शारीरिक वृद्धि, जैसे ऊंचाई और वजन में वृद्धि, अक्सर संज्ञानात्मक क्षमताओं के विकास और नए कौशल के अधिग्रहण से मेल खाती है।

कुल मिलाकर, विकास और विकास में प्रगतिशील परिवर्तन शामिल होते हैं जो किसी व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक पहलुओं में होते हैं, क्योंकि वे जन्म से वयस्कता तक परिपक्व होते हैं। इसमें आनुवांशिक और पर्यावरणीय कारकों का एक जटिल परस्पर क्रिया शामिल है और चरणों में होता है, प्रत्येक चरण में अलग-अलग विशेषताओं और मील के पत्थर प्रदर्शित होते हैं।

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वृद्धि और विकास में अन्तर

(Difference Between Growth and Development)

मानव वृद्धि और विकास  (Human Growth and Development): परिवर्तन ही संसार का नियम है , चाहें वस्तु सजीव हो या निर्जीव हो उनमे हमेशा कोई ना कोई परिवर्तन होता रहता है | मानव में परिवर्तनों की श्रृंखला ही मानव का वृद्धि और विकास (Growth and Development) है | विकास प्राणी की वह विशेषता है , जिसका प्रारंभ गर्भधारण से होता है और जीवन पर्यंत चलता है |तो चलिए जानते है की वृद्धि और विकास में क्या अंतर है |

सामान्यतः बोलचाल की भाषा में वृद्धि और विकास शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ के लिए करते हैं जबकि वास्तव में यह दोनों शब्द वृद्धि और विकास अपना अलग-अलग अर्थ एवं महत्व बताते हैं।

  • वृद्धि वृद्धि का अर्थ है– ‘बढ़ना’ या ‘फैलना’ होता है। अतः मनुष्य के आंतरिक और बाह्य अंगों का बढ़ना ही वृद्धि कहलाता है। वृद्धि शारीरिक रचना और शारीरिक बदलाव की ओर संकेत करती है।किसी भी प्राणी में विकास पूर्व में और वृद्धि बाद में होती है। वृद्धि गर्भाधान के लगभग 2 सप्ताह पश्चात् ही प्रारंभ होती है और बीस वर्ष की उम्र के आस-पास समाप्त हो जाती है।वृद्धि में होने वाले बदलाव सिर्फ शारीरिक व रचनात्मक ही होते हैं। वृद्धि केवल परिपक्व अवस्था तक ही सीमित होती है जबकि विकास जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है।
  • विकास – विकास एक सार्वभौमिक प्रक्रिया मानी जाती है जो जन्म से लेकर जीवन पर्यंत तक अविराम गति से निरंतर चलती रहती है। विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता है बल्कि इसके अंतर्गत के प्रत्येक शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक बदलाव शामिल रहते हैं जो गर्भकाल से लेकर मृत्यु के पश्चात भी निरंतर मनुष्यों में प्रकट होते रहते हैं। अतः प्राणी के अंदर विभिन्न प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक क्रमिक बदलाव की उत्पत्ति ही ‘विकास’ कहलाती है।

उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि अभिवृद्धि एवं विकास सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न है, किन्तु यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाये तो जात होता है कि विकास की अवधारणा में अभिवृद्धि की अवधारणा भी निहित है। मानव विकास के अध्ययन में हम वृद्धि को विकास से कदापि अलग नहीं कर सकते ।

विकास के कारण: बालक के शारीरिक व मानसिक क्रियाओं के दो मुख्य कारण होते हैं, जो इस प्रकार हैं-

  1. परिपक्वता: परिपक्यता का अर्थ है- व्यक्ति के आन्तरिक अंगों का प्रौद होना तथा उन गुणों का विकसित होना जो उसे वंशानुक्रम से प्राप्त होते हैं। बालक के विकास पर परिपक्वता की प्रक्रिया का प्रभाव जन्म से लेकर तब तक पड़ता है जब तक कि उसे मांसपेशीय एवं स्नायविक दृढ़ता और प्रौदत्ता पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हो जाती । परिपक्वता आन्तरिक विकास की प्रक्रिया है, इसी के कारण बालक के शारीरिक अवषयों में नई क्रिया को सीखने की क्षमता उत्पन्न होती है।
  2. अधिगम:वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करते समय व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं में जो परिवर्तन होता है, उसे अधिगम या सीखना कहते है।

परिपन्यता तथा अधिगम की क्रियाओं का एक-दूसरे से अनिष्ट सम्बन्ध है। दोनों का प्रभाव एक-दूसरे पर पड़ता है। विकास के अन्तर्गत ना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। परिपक्वता वंशानुक्रम से तथा अधिगम वातावरण से सम्बन्धित है।


वृद्धि और विकास की तालिका

(Growth and Development Table)

मुख्य बिन्दु Growth (वृद्धि) Development (विकास)
अर्थ शारीरिक संरचना में होने वाली बढ़ोतरी वृद्धि कहलाती है। विकास परिपक्वता की ओर बढ़ता हुआ एक निश्चित क्रम है।
क्षेत्र वृद्धि का क्षेत्र सीमित होता है इसमें केवल शारीरिक परिवर्तन को शामिल किया जाता है। विकास का क्षेत्र विस्तृत होता है। इसमें शारीरिक मानसिक सामाजिक नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मम सभी प्रकार के परिवर्तन शामिल है।
मापन वृद्धि में होने वाले सभी परिवर्तनों को मापा जा सकता है। जैसे: कद, भार, आकार में वृद्धि। विकास में होने वाले अधिकांश परिवर्तनों को भाषा नहीं जा सकता है बल्कि महसूस किया जा सकता है।
समयावधि वृद्धि की आयु निश्चित होती है। | यह एक निश्चित समयावधि किशोरावस्था के बाद आकर रुक जाती है। विकास की आयु निश्चित नहीं होती। यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। जो बच्चे के जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती है।
निरभरता वृद्धि विकास के बिना संभव विकास होती है। विकास वृद्धि के बिना संभव हो भी सकती है और नहीं भी ।
परिमाणात्मक/ गुणात्मक वृद्धि में होने वाले परिवर्तन परिमाणात्मक होते है। विकास में होने वाले परिवर्तन परिमाणात्मक और गुणात्मक दोनों प्रकार के होते है।
प्रत्यक्ष और परोक्ष वृद्धि में होने वाले परिवर्तन प्रत्यक्ष होते हैं। विकास में होने वाले परिवर्तन अधिकांश परोक्ष होते हैं।
पूर्वानुमान / भविष्यमान वृद्धि के आधार पर भविष्य वाणी नहीं कर सकते। विकास के आधार पर किसी बच्चे की भविष्य वाणी की जा सकती है।
परिवर्तनों का प्रकार Quantitative/incremental changes (मात्रात्मक/वृद्धिशील परिवर्तन) परिवर्तन मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों होते हैं।
परिणाम विकास के परिणामस्वरूप भौतिक आकार और संरचना में वृद्धि होती है। विकास समग्र परिपक्वता और वयस्कता की ओर प्रगति की ओर ले जाता है।
दर विकास बचपन और किशोरावस्था के दौरान अपेक्षाकृत स्थिर दर से होता है। विकास की दर व्यक्तियों और विकास के विभिन्न पहलुओं के बीच भिन्न होती है।

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 वृद्धि और विकास में निम्नलिखित अंतर होते हैं |

  1. वृद्धि मुख्य रूप से विकास की प्रक्रिया का परिणाम होता है जबकि विकास स्वयं एक प्रक्रिया होती है।
  2. वृद्धि परिणात्मक स्थिति होती है जबकि विकास गुणात्मक स्थिति होती है।
  3. मनुष्य में वृद्धि किशोरावस्था तक सीमित होती है जबकि विकास की क्रिया संपूर्ण जीवन तक चलती रहती है।
  4. वृद्धि को मापदंड की श्रेणी में रखा जा सकता है परंतु विकास को मापना कठिन होता है।
  5. वृद्धि का संबंध केवल शारीरिक परिवर्तन से होता है जबकि विकास का संबंध शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक एवं सामाजिक परिवर्तन से होता है।
  6. वृद्धि की क्रिया बाह्य एवं आंतरिक रूप में हो सकती है परंतु विकास की प्रक्रिया केवल आंतरिक रूप से होती है।
  7. वृद्धि के अंतर्गत होने वाले परिवर्तनों को सामान्य रूप से किसी व्यक्ति के जीवन में देखा जा सकता है परंतु विकास के अंतर्गत होने वाले परिवर्तनों को सामान्यत: देखा नहीं जा सकता है क्योंकि यह अप्रत्यक्ष होता है।
  8. वृद्धि मुख्य रूप से विकास की सतत प्रक्रिया का एक छोटा चरण माना जाता है जबकि विकास एक विस्तृत शब्द है।
  9. वृद्धि का संकीर्ण अर्थ शारीरिक आकार में वृद्धि की प्रक्रिया है जबकि विकास मुख्य रूप से व्यक्ति की मानसिक गतिविधियों को दर्शाता है।

प्रायः यह देख गया है कि वृद्धि और व विकास शब्दो को एक दूसरे का पर्यायवाची समझ लिया जाता है । जबकि दोनो में कई आधार पर अन्तर होता है | जो निम्न प्रकार से समझा जा सकता है |

  1. अर्थ के आधार पर (By meaning): वृद्धि का अर्थ है शारीरिक परवर्तन । इन परिवर्तनो के कारण व्यवाहार मे परिवर्तन होने लगता है। लेकिन विकास का अर्थ गुणात्मक परिवर्तनो से किया जाता हैं।
  2. व्यापक व संकुचित शब्द (Broader and narrow terms): वृद्धि को विकास से संकुचित मना जाता है । क्योकि वृद्धि की अवधारणा विकास की अवधारणा का ही एक भाग हैं।
  3. परिमाणात्मक और गुणात्मक (Quantitative and Qualitative): वृद्धि का तात्पर्य मात्रात्मक या परिमाणात्मक परिवर्तनो से जबकि विकास का सम्बध गुणात्मक र्फर्वतनो से होता है ।
  4. वृद्धि और विकास की निरन्तरता (Continuity of growth and development): वृद्धि निरन्तर नहीं चलती, परन्तु शैशवकाल में तीव्र होती है और उसके बाद धीमी हो जाती है। लेकिन विकास की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है और रुकती नहीं है।

वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त संक्षेप में

(Principles of Growth and Development in Short)

वृद्धि और विकास के कई सिद्धांत हैं जिनकी पहचान मानव विकास के क्षेत्र में शोधकर्ताओं और सिद्धांतकारों द्वारा की गई है। हालांकि अलग-अलग विशेषज्ञ थोड़ी अलग सूचियां प्रस्तावित कर सकते हैं, यहां कुछ सामान्य रूप से मान्यता प्राप्त सिद्धांत हैं:

  1. सेफेलोकॉडल सिद्धांत (Cephalocaudal Principle): विकास सिर से पैर की ओर बढ़ता है। इसका मतलब यह है कि वृद्धि और विकास सिर से पूंछ की दिशा में होता है, शरीर के निचले हिस्सों से पहले सिर और ऊपरी शरीर के नियंत्रण और समन्वय के साथ।
    उदाहरण: एक नवजात शिशु अपने अंगों को नियंत्रित करने और रेंगने की क्षमता हासिल करने से पहले अपने सिर को उठा और हिला सकता है।
  2. प्रॉक्सिमोडिस्टल सिद्धांत (Proximodistal Principle): विकास शरीर के केंद्र से बाहर की ओर बढ़ता है। यह सिद्धांत बताता है कि वृद्धि और विकास शरीर की मध्य रेखा (रीढ़ की हड्डी के पास) से चरम सीमाओं की ओर होता है।
    उदाहरण: एक बच्चा छोटी वस्तुओं को अपनी उंगलियों से उठाने के लिए आवश्यक ठीक मोटर कौशल विकसित करने से पहले अपने पूरे हाथ का उपयोग करके वस्तुओं को पकड़ने की क्षमता विकसित करता है।
  3. पदानुक्रमित एकीकरण का सिद्धांत (Principle of Hierarchical Integration): सरल कौशल और क्षमताएं जटिल से पहले विकसित होती हैं। इसका मतलब है कि बुनियादी कौशल और कार्य अधिक उन्नत कौशल के विकास की नींव रखते हैं। उदाहरण के लिए, शिशुओं को पहले अपनी गर्दन और धड़ पर नियंत्रण विकसित करना चाहिए, इससे पहले कि वे रेंग सकें और अंततः चल सकें।
    उदाहरण: एक बच्चा शब्दों को बनाने और अंत में वाक्यों का निर्माण करने की क्षमता विकसित करने से पहले सरल ध्वनियाँ और प्रलाप करना सीखता है।
  4. प्रणालियों की स्वतंत्रता का सिद्धांत (Principle of Independence of Systems): विकास की विभिन्न प्रणालियां (भौतिक, संज्ञानात्मक, सामाजिक, आदि) अलग-अलग दरों पर विकसित होती हैं और परस्पर निर्भरता के अलग-अलग स्तर होते हैं। उदाहरण के लिए, शारीरिक विकास संज्ञानात्मक या सामाजिक-भावनात्मक विकास की तुलना में भिन्न गति से हो सकता है।
    उदाहरण: एक बच्चे के पास उन्नत भाषा कौशल हो सकता है लेकिन फिर भी उसे कूदने या गेंद फेंकने जैसे सकल मोटर कौशल के साथ संघर्ष करना पड़ता है।
  5. व्यक्तिगत अंतर का सिद्धांत (Principle of Individual Differences): प्रत्येक व्यक्ति की वृद्धि और विकास का एक अनूठा पैटर्न और समय होता है। जबकि सामान्य रुझान और मील के पत्थर हैं, व्यक्ति अपने विकास की दर और क्रम में भिन्न हो सकते हैं।
    उदाहरण: एक ही उम्र के दो बच्चे अलग-अलग समय पर मील के पत्थर तक पहुँच सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक बच्चा 10 महीने में चलना शुरू कर सकता है, जबकि दूसरा 13 महीने में अपना पहला कदम रख सकता है।
  6. सतत बनाम असंतत विकास का सिद्धांत (Principle of Continuous vs. Discontinuous Development): विकास को एक सतत प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें समय के साथ वृद्धिशील परिवर्तन होते हैं या अलग-अलग चरणों या चरणों की एक श्रृंखला के रूप में। जीन पियागेट के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत जैसे सिद्धांत असतत चरणों का प्रस्ताव करते हैं, जबकि अन्य सिद्धांत निरंतर विकास पर जोर देते हैं।
    उदाहरण: पियागेट के सिद्धांत में, एक बच्चा संज्ञानात्मक विकास के विभिन्न चरणों के माध्यम से प्रगति करता है। उदाहरण के लिए, सेंसरिमोटर चरण के दौरान, शिशु वस्तु स्थायित्व विकसित करते हैं, जो एक प्रमुख संज्ञानात्मक मील का पत्थर है।
  7. प्रकृति और पोषण का सिद्धांत (Principle of Nature and Nurture): विकास आनुवंशिक कारकों (प्रकृति) और पर्यावरणीय कारकों (पोषण) दोनों से प्रभावित होता है। अनुवांशिक पूर्वाग्रहों और पर्यावरणीय अनुभवों के बीच परस्पर क्रिया एक व्यक्ति की वृद्धि और विकास को आकार देती है।
    उदाहरण: एक बच्चे की लंबाई उनके आनुवंशिक प्रवृत्ति (प्रकृति) से प्रभावित हो सकती है, लेकिन उनके पोषण का सेवन और समग्र स्वास्थ्य (पोषण) भी उनकी विकास क्षमता को प्रभावित कर सकता है।
  8. परिपक्वता का सिद्धांत (Principle of Maturation): विकास घटनाओं के आनुवंशिक रूप से निर्धारित अनुक्रम के अनुसार प्रकट होता है, जिसे अक्सर परिपक्वता कहा जाता है। परिपक्वता का तात्पर्य विकास को निर्देशित करने वाले जैविक परिवर्तनों और प्रक्रियाओं के पूर्व निर्धारित प्रकटीकरण से है।
    उदाहरण: एक किशोर युवावस्था के दौरान विकास में तेजी का अनुभव करता है, जो एक आनुवंशिक रूप से पूर्व निर्धारित प्रक्रिया है जो शारीरिक परिवर्तन जैसे कि ऊंचाई में वृद्धि और यौन परिपक्वता की ओर ले जाती है।
  9. महत्वपूर्ण अवधियों और संवेदनशील अवधियों का सिद्धांत (Principle of Critical Periods and Sensitive Periods): विकास में कुछ निश्चित अवधियाँ होती हैं जब व्यक्ति विशिष्ट पर्यावरणीय प्रभावों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं। ये महत्वपूर्ण या संवेदनशील अवधि ऐसे समय होते हैं जब विशिष्ट अनुभव या हस्तक्षेप का विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
    उदाहरण: प्रारंभिक बचपन के दौरान भाषा अधिग्रहण अक्सर आसान होता है जब मस्तिष्क भाषा इनपुट के प्रति अत्यधिक ग्रहणशील होता है। जो बच्चे इस महत्वपूर्ण अवधि के दौरान एक समृद्ध भाषाई वातावरण के संपर्क में आते हैं, वे उन लोगों की तुलना में अधिक आसानी से भाषा सीखते हैं जो नहीं करते हैं।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये सिद्धांत संपूर्ण नहीं हैं, और मानव विकास के क्षेत्र में विभिन्न सिद्धांतकारों या शोधकर्ताओं द्वारा प्रस्तावित अतिरिक्त सिद्धांत भी हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त, ये सिद्धांत वृद्धि और विकास के सामान्य पैटर्न पर लागू होते हैं, लेकिन व्यक्तिगत मतभेदों और विविधताओं की पूरी जटिलता पर कब्जा नहीं कर सकते हैं।


Principles of Growth and Development

(वृद्धि और विकास के सिद्धांत)

वृद्धि और विकास के संबंध में मनोवैज्ञानिकों द्वारा अनेक अध्ययन किए गए हैं। इन अध्ययनों से यह सिद्ध हुआ है कि वृद्धि एवं विकास के फलस्वरूप होने वाले परिवर्तनों में निश्चित सिद्धांतों का पालन करने की प्रवृत्ति होती है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि वृद्धि और विकास की प्रक्रिया कुछ सिद्धांतों का पालन करती है। इन सिद्धांतों को वृद्धि और विकास के सामान्य सिद्धांत कहा जाता है। शिक्षा मनोविज्ञान के छात्र के लिए वृद्धि और विकास की प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों को जानना बहुत आवश्यक और महत्वपूर्ण होगा। वृद्धि और विकास के कुछ प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं |

  1. निरन्तरता का सिद्धान्त (Principle of Continuity)
  2. व्यक्तिगतता का सिद्धान्त (Principle of Individuality)
  3. परिमार्जितता का सिद्धान्त (Principle of Modifyability)
  4. निश्चित तथा पूर्वकथनीय प्रतिरूप का सिद्धान्त (Principle of Definite and Predictable Pattern)
  5. समान-प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern)
  6. समन्वय का सिद्धान्त (Principle of Integration)
  7. वंशानुक्रम तथा वातावरण की अंतःक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction between Heredity and Enviornment) etc.
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गैरीसन एट अल के अनुसार

(According to Garrison et al)

जब बच्चा विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है, तब हमें उसमें कुछ परिवर्तन दिखाई देते हैं। अध्ययन के क्रम में यह पाया गया है कि परिवर्तन काफी निश्चित सिद्धांतों का पालन करते हैं। इन्हें विकास का सिद्धांत कहा जाता है। विकास की प्रक्रिया इन सिद्धांतों द्वारा नियंत्रित होती है, जो इस प्रकार हैं:

1. विकास की दिशा का सिद्धांत (Theory of Direction of Development):

इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे के शरीर में वृद्धि सिर से पाँव तक होती है। मनोवैज्ञानिकों ने इस विकास को मस्तकेघोमुखी (Cephalo Caudal Direction) कहा है। इसमें पहले बच्चे का सिर, फिर धड़ और फिर हाथ-पैर विकसित होते हैं।

दिशा ऊपर से नीचे की ओर होती है अर्थात विकास सिर से पैर की ओर और केंद्र से परिधि की ओर होता है। शरीर के ऊपरी भाग पहले विकसित होते हैं और निचले भाग बाद में विकसित होते हैं।

  • सेफलोकॉडल सिद्धांत (Cephalocaudal Principle): विकास की दिशा के सिद्धांत के अनुसार, बच्चे के शरीर का विकास एक विशिष्ट क्रम में होता है, जिसे सेफलोकौडल सिद्धांत के रूप में जाना जाता है। यह सिद्धांत बताता है कि विकास सिर (सेफलो) से पैरों (कॉडल) तक बढ़ता है। दूसरे शब्दों में, शरीर के ऊपरी हिस्से निचले हिस्सों से पहले विकसित होते हैं।
    उदाहरण: शैशवावस्था के दौरान, एक बच्चा आमतौर पर सेफलोकौडल सिद्धांत का प्रदर्शन करता है। जन्म के समय, एक बच्चे का सिर उसके शरीर के बाकी हिस्सों की तुलना में अपेक्षाकृत बड़ा होता है। जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता है, सिर का विकास जारी रहता है, अधिक नियंत्रण और स्थिरता प्राप्त होती है। धीरे-धीरे, बच्चा धड़ पर नियंत्रण हासिल कर लेता है, उसके बाद हाथों और पैरों का विकास होता है। उदाहरण के लिए, एक बच्चा आमतौर पर अपने सिर को ऊपर उठाना और नियंत्रित करना सीखता है, इससे पहले कि वह लुढ़कना, रेंगना और अंततः चलना सीखे। सिर से पैर तक की यह प्रगति विकास के सेफलोकौडल सिद्धांत का उदाहरण है।
  • समीपस्थ सिद्धांत (Proximodistal Principle): सेफलोकौडल सिद्धांत के अलावा, विकास की दिशा के सिद्धांत में प्रोक्सीमोडिस्टल सिद्धांत भी शामिल है। यह सिद्धांत बताता है कि विकास शरीर के केंद्र (समीपस्थ) से छोरों (डिस्टल) की ओर बढ़ता है। दूसरे शब्दों में, विकास कोर से शुरू होता है और शरीर की परिधि की ओर बढ़ता है।
    उदाहरण: प्रॉक्सिमोडिस्टल सिद्धांत को बच्चे के मोटर कौशल के विकास में देखा जा सकता है। शैशवावस्था के दौरान, एक शिशु अपने अंगों पर नियंत्रण विकसित करने से पहले अपनी मुख्य मांसपेशियों, जैसे कि गर्दन और धड़ की मांसपेशियों पर नियंत्रण हासिल कर लेता है। उदाहरण के लिए, एक शिशु सकल मोटर आंदोलनों का उपयोग करते हुए, अपने पूरे हाथ से वस्तुओं तक पहुंचकर शुरू कर सकता है। जैसे-जैसे वे बढ़ते हैं, वे धीरे-धीरे अपनी बांह और हाथ की मांसपेशियों पर अधिक नियंत्रण प्राप्त करते हैं, जिससे उन्हें अपनी उंगलियों से वस्तुओं को पकड़ने और अधिक परिष्कृत आंदोलनों में संलग्न होने की अनुमति मिलती है। केंद्र से परिधि तक की यह प्रगति प्रोक्सीमोडिस्टल सिद्धांत को दर्शाती है।

2. सतत विकास का सिद्धांत (Theory of Continuous Development):

मनोवैज्ञानिक B.F स्किनर द्वारा प्रस्तावित निरंतर विकास के सिद्धांत के अनुसार, विकास एक सतत और निर्बाध प्रक्रिया है जो किसी व्यक्ति के जीवन भर होती है। यह सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि किसी व्यक्ति के विकास में कोई विशिष्ट परिवर्तन या अवस्था नहीं होती है, बल्कि एक सतत और क्रमिक प्रगति होती है। विकास एक समान गति से नहीं होता, बल्कि अविरामगति से निरंतर चलता रहता है। विकास की गति कभी तेज, कभी धीमी रहती है।

  • एक सतत प्रक्रिया के रूप में विकास (Development as a Continuous Process): सतत विकास के सिद्धांत में यह माना जाता है कि विकास असतत चरणों या अचानक परिवर्तनों में नहीं होता है। इसके बजाय, यह एक सतत और क्रमिक प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक होती है। इसका मतलब यह है कि व्यक्ति अपने पूरे जीवन में लगातार विकसित हो रहे हैं, सीख रहे हैं और अनुकूलन कर रहे हैं।
  • विकास की बदलती गति (Varying Pace of Development): जबकि विकास निरंतर है, सिद्धांत मानता है कि विकास की गति भिन्न हो सकती है। व्यक्तियों को तीव्र प्रगति और विकास की अवधि का अनुभव हो सकता है, इसके बाद धीमी विकास की अवधि हो सकती है। इसका मतलब यह है कि जिस दर पर व्यक्ति नए कौशल, ज्ञान और क्षमताएं हासिल करते हैं, उनके जीवन भर में उतार-चढ़ाव हो सकता है।

उदाहरण: निरंतर विकास के सिद्धांत का एक उदाहरण एक वयस्क के संज्ञानात्मक विकास में देखा जा सकता है जो उच्च शिक्षा प्राप्त करने का निर्णय लेता है। प्रारंभ में, व्यक्ति सीखने की तीव्र गति का अनुभव कर सकता है क्योंकि वे अपने चुने हुए क्षेत्र में नया ज्ञान और कौशल प्राप्त करते हैं। वे अपने पाठ्यक्रमों के माध्यम से तेजी से प्रगति कर सकते हैं, जानकारी को तेजी से अवशोषित कर सकते हैं और अपनी समझ में महत्वपूर्ण वृद्धि प्रदर्शित कर सकते हैं।

हालाँकि, कुछ बिंदुओं पर, व्यक्ति चुनौतीपूर्ण अवधारणाओं या विषयों का सामना कर सकता है जिन्हें समझने के लिए अधिक समय और प्रयास की आवश्यकता होती है। इन अवधियों के दौरान, विकास की गति धीमी हो सकती है क्योंकि व्यक्ति अधिक समय अध्ययन करने, अतिरिक्त सहायता मांगने, या प्रतिबिंब और समझ के गहरे स्तरों में संलग्न होने में व्यतीत करता है। आखिरकार, दृढ़ता और प्रयास के साथ, व्यक्ति इन चुनौतियों से पार पा सकता है और सीखने की तेज गति को फिर से शुरू कर सकता है।

3. विकास के अनुक्रम का सिद्धांत (Theory of Sequence of Development):

बाल विकास विशेषज्ञों द्वारा प्रस्तावित विकास के क्रम के सिद्धांत के अनुसार, विकास एक विशिष्ट और पूर्वानुमेय क्रम में होता है। यह सिद्धांत बताता है कि बच्चे मील के पत्थर की एक श्रृंखला के माध्यम से प्रगति करते हैं और एक विशेष क्रम में नए कौशल और क्षमताएं प्राप्त करते हैं।

  • मोटर और भाषा विकास (Motor and Language Development): विकास के अनुक्रम का सिद्धांत बच्चे के विकास के दो प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित है: मोटर कौशल और भाषा कौशल। मोटर विकास शारीरिक क्षमताओं और समन्वय की प्रगति को संदर्भित करता है, जबकि भाषा विकास मौखिक संचार के अधिग्रहण और उपयोग से संबंधित है।
  • व्यवस्थित अनुक्रम (Orderly Sequence): सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि इन क्षेत्रों के भीतर विकास एक निश्चित और व्यवस्थित क्रम का अनुसरण करता है। बच्चे आमतौर पर विशिष्ट मील के पत्थर हासिल करते हैं और एक अनुमानित पैटर्न में नई क्षमताएं हासिल करते हैं। उदाहरण के लिए, एक बच्चे के मोटर कौशल, जैसे कि पहुंचना, पकड़ना, रेंगना और चलना, एक विशिष्ट क्रम में विकसित होते हैं। इसी तरह, भाषा का विकास सरल ध्वनियों और इशारों से एकल शब्दों, वाक्यांशों और अंततः जटिल वाक्यों की ओर बढ़ता है।

उदाहरण:

  • विकास के अनुक्रम के सिद्धांत का एक वास्तविक जीवन उदाहरण बच्चे के भाषा कौशल के विकास में देखा जा सकता है। जीवन के पहले कुछ महीनों में, शिशु मुख्य रूप से रोने और रिफ्लेक्सिव आवाजें निकालने के माध्यम से संवाद करते हैं। जैसे ही वे तीसरे महीने में पहुंचते हैं, वे कूकने की आवाजें निकालना शुरू कर देते हैं। छठे महीने तक, बच्चे अक्सर बड़बड़ाने लगते हैं, “बा-बा” या “मा-मा” जैसे दोहराए जाने वाले शब्दांश बनाते हैं।
  • जैसे ही बच्चा सातवें महीने तक पहुंचता है, वे आम तौर पर ध्वनियों की नकल करना शुरू करते हैं और “पा,” “बा,” “मा,” या “दा” जैसे सरल शब्दों को कहने का प्रयास करते हैं। समय के साथ, उनकी शब्दावली का विस्तार होता है, और वे अधिक जटिल शब्द और वाक्य बनाने की क्षमता विकसित करते हैं।
  • भाषा के विकास का यह क्रम, रोने से लेकर कूकने, बड़बड़ाने, ध्वनियों की नकल करने और अंततः सार्थक शब्दों और वाक्यों का निर्माण करने तक, विकास के अनुक्रम के सिद्धांत के साथ संरेखित होता है।

संक्षेप में, विकास के अनुक्रम का सिद्धांत प्रस्तावित करता है कि बच्चे विकास के एक विशिष्ट और व्यवस्थित पैटर्न का पालन करते हैं। यह सिद्धांत मोटर और भाषा कौशल की क्रमिक प्रगति पर प्रकाश डालता है, जहां बच्चे एक पूर्वानुमानित क्रम में विकासात्मक मील के पत्थर हासिल करते हैं।

4. विकास की गति में व्यक्तिगत अंतर का सिद्धांत (Principle of Individual Differences in the Speed of Development):

विकास की गति में व्यक्तिगत अंतर का सिद्धांत इस बात पर प्रकाश डालता है कि व्यक्तियों के बढ़ने और विकसित होने की दर में भिन्नता होती है। यह स्वीकार करता है कि अलग-अलग व्यक्ति अपने शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास में अलग-अलग गति से प्रगति कर सकते हैं, भले ही वे एक ही उम्र के हों।

  1. विकासात्मक गति में बदलाव (Variations in Developmental Speed): वैज्ञानिक अध्ययन और अवलोकन लगातार प्रदर्शित करते हैं कि व्यक्ति अपनी विकासात्मक गति में भिन्नता प्रदर्शित करते हैं। एक ही उम्र के दो बच्चे अपने शारीरिक, संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास में ध्यान देने योग्य अंतर प्रदर्शित कर सकते हैं। कुछ बच्चे पहले विकासात्मक मील के पत्थर तक पहुँच सकते हैं, जबकि अन्य को समान मील के पत्थर हासिल करने में अधिक समय लग सकता है।
  2. वृद्धि और विकास का पृथक्करण (Separation of Growth and Development): सिद्धांत यह भी मानता है कि वृद्धि और विकास अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं जो अलग-अलग दरों पर प्रगति कर सकती हैं। विकास शारीरिक परिवर्तनों को संदर्भित करता है, जैसे ऊंचाई, वजन और शरीर के अनुपात, जबकि विकास कौशल, योग्यता और ज्ञान के अधिग्रहण को शामिल करता है।

उदाहरण:

  • विकास की गति में व्यक्तिगत अंतर के सिद्धांत को दर्शाता एक उदाहरण एक ही उम्र के दो बच्चों की वृद्धि और विकास में देखा जा सकता है। आइए दो पांच वर्षीय बच्चों, एलेक्स और माया पर विचार करें।
  • एलेक्स इस अवधि के दौरान विकास में तेजी का अनुभव करता है, जिसके परिणामस्वरूप ऊंचाई और वजन में उल्लेखनीय वृद्धि होती है। हालाँकि, संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास के मामले में, एलेक्स धीमी गति से प्रगति कर सकता है। दूसरी ओर, माया स्थिर शारीरिक विकास प्रदर्शित करती है लेकिन अपनी उम्र के लिए उन्नत संज्ञानात्मक और सामाजिक कौशल का प्रदर्शन करती है।
  • Alex और Maya के बीच विकास की गति के ये अंतर व्यक्तिगत अंतर के सिद्धांत को उजागर करते हैं। एक ही उम्र के होने के बावजूद, वे अपने विकास और विकास में भिन्नता दिखाते हैं, कुछ क्षेत्रों में उत्कृष्टता प्राप्त करते हुए दूसरों में धीमी गति से प्रगति करते हैं।

संक्षेप में, विकास की गति में व्यक्तिगत अंतर का सिद्धांत मानता है कि व्यक्ति अपनी वृद्धि और विकास दर में भिन्नता प्रदर्शित करते हैं। यह इस बात पर बल देता है कि वृद्धि और विकास आवश्यक रूप से एक ही गति से प्रगति नहीं करते हैं, और व्यक्ति अलग-अलग समय में मील के पत्थर प्राप्त कर सकते हैं या विशिष्ट क्षेत्रों में उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं जबकि दूसरों में अधिक धीमी गति से प्रगति कर सकते हैं।

5. अंतर्संबंध का सिद्धांत (Principle of Interrelationship):

अंतर्संबंध का सिद्धांत बच्चों में शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास की परस्पर प्रकृति पर जोर देता है। यह बताता है कि विकास के ये पहलू अलग-थलग नहीं हैं बल्कि एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और परस्पर क्रिया करते हैं।

  1. शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास के बीच अंतर्संबंध: इस सिद्धांत के अनुसार, बच्चे के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक पहलुओं का विकास आपस में जुड़ा हुआ है। विकास के एक क्षेत्र में परिवर्तन अन्य क्षेत्रों को प्रभावित कर सकता है। उदाहरण के लिए, जैसे-जैसे बच्चे का शारीरिक विकास बढ़ता है, वैसे-वैसे उनकी रुचियों, ध्यान देने की अवधि और व्यवहार में तदनुरूप परिवर्तन हो सकते हैं। इसी प्रकार शरीर का शारीरिक विकास बौद्धिक विकास को प्रभावित कर सकता है।
  2. शरीर के विभिन्न पक्षों के भीतर अंतर्संबंध: यह सिद्धांत शरीर के विभिन्न पक्षों के बीच अंतर्संबंधों पर भी प्रकाश डालता है। शरीर के एक तरफ के विकास का असर हो सकता है, हालांकि अलग-अलग डिग्री के लिए, दूसरी तरफ के विकास पर। प्रभाव की मात्रा एक तरफ विकास की सीमा पर निर्भर करती है। एक तरफ अधिकतम विकास का दूसरी तरफ के विकास पर अधिक प्रभाव पड़ सकता है।

उदाहरण:

अंतर्संबंध के सिद्धांत को दर्शाने वाला एक उदाहरण बच्चे के मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक और शारीरिक कल्याण के बीच संबंध है। आइए 2 परिदृश्यों (scenarios) पर विचार करें:

  • Scenario 1: एक मानसिक रूप से पिछड़ा बच्चा (संज्ञानात्मक विकास में पिछड़ा हुआ) भी सामाजिक और भावनात्मक विलंब प्रदर्शित कर सकता है। बच्चे की सीमित संज्ञानात्मक क्षमताएं उनके सामाजिक संबंधों और भावनात्मक समझ को प्रभावित कर सकती हैं। इन पहलुओं की परस्पर संबद्धता दर्शाती है कि एक क्षेत्र की कठिनाइयाँ विकास के अन्य क्षेत्रों को प्रभावित कर सकती हैं।
  • Scenario 2: एक बच्चा जो लगातार खुशी और सकारात्मकता प्रदर्शित करता है, उसके अच्छे शारीरिक स्वास्थ्य की संभावना अधिक होती है। बच्चे की सकारात्मक भावनात्मक स्थिति शारीरिक स्वास्थ्य सहित उनके समग्र कल्याण में योगदान कर सकती है। उनकी भावनात्मक भलाई उनके शारीरिक विकास पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकती है।

संक्षेप में, अंतर्संबंध का सिद्धांत बच्चों में शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास की परस्पर संबद्धता पर बल देता है। यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे एक क्षेत्र में परिवर्तन विकास के अन्य क्षेत्रों को प्रभावित कर सकता है। इसके अलावा, यह शरीर के विभिन्न पक्षों के भीतर अंतर्संबंधों को पहचानता है, जहां एक तरफ का विकास दूसरे पक्ष के विकास को अलग-अलग डिग्री तक प्रभावित कर सकता है।

6. समान पैटर्न का सिद्धांत (Principle of the Same Pattern):

समान पैटर्न का सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि बच्चों में विकास का पैटर्न, उनकी प्रजातियों की परवाह किए बिना, एक सुसंगत और चारित्रिक अनुक्रम का अनुसरण करता है। यह बताता है कि विकास का एक सार्वभौमिक और अंतर्निहित पैटर्न है जो एक प्रजाति के भीतर व्यक्तियों के बीच साझा किया जाता है, चाहे वह मनुष्य हो या अन्य जानवर।

  1. विकासात्मक पैटर्न में निरंतरता (Consistency in Developmental Pattern): इस सिद्धांत के अनुसार, एक प्रजाति के भीतर व्यक्तियों में विकास के क्रम में एक मौलिक समानता है। इसका मतलब यह है कि एक ही प्रजाति के बच्चे, जैसे मनुष्य, विकास के समान पैटर्न प्रदर्शित करते हैं, तुलनीय चरणों के माध्यम से प्रगति करते हैं और एक सुसंगत क्रम में कौशल और क्षमताएं प्राप्त करते हैं।
  2. प्रजाति-विशिष्ट विकास (Species-Specific Development): सिद्धांत इस बात पर भी जोर देता है कि प्रत्येक प्रजाति के विकास का अपना अनूठा पैटर्न होता है। उदाहरण के लिए, मानव विकास एक विशिष्ट क्रम का अनुसरण करता है जो मानव प्रजाति के लिए विशिष्ट है। इसी तरह, विभिन्न जानवरों की प्रजातियों के अपने विशिष्ट विकासात्मक पैटर्न होते हैं जो उनके विशिष्ट जैविक और व्यवहार संबंधी लक्षणों के साथ संरेखित होते हैं।

उदाहरण:

  • इसी पैटर्न के सिद्धांत को दर्शाने वाला एक उदाहरण मानव में भाषा कौशल का विकास है। सांस्कृतिक पृष्ठभूमि या व्यक्तिगत मतभेदों के बावजूद, बच्चे आमतौर पर भाषा के विकास में समान प्रगति का पालन करते हैं। वे कूकने और बड़बड़ाने से शुरू करते हैं, फिर एकल शब्द बनाने के लिए आगे बढ़ते हैं, और अंततः जटिल वाक्य बनाने की क्षमता विकसित करते हैं।
  • भाषा के विकास का यह सुसंगत पैटर्न विभिन्न संस्कृतियों और समाजों में देखा जा सकता है, जो एक साझा सार्वभौमिक पैटर्न का सुझाव देता है। हालांकि विशिष्ट भाषा मील के पत्थर की गति और समय में अलग-अलग भिन्नताएं हो सकती हैं, समग्र पैटर्न काफी हद तक समान रहता है।

संक्षेप में, समान पैटर्न का सिद्धांत यह मानता है कि एक प्रजाति के भीतर विकास का एक सुसंगत और विशिष्ट क्रम होता है। यह सुझाव देता है कि एक प्रजाति के भीतर के व्यक्ति, जैसे कि मनुष्य, विकास के एक सार्वभौमिक पैटर्न को साझा करते हैं, जबकि यह स्वीकार करते हुए कि प्रत्येक प्रजाति का अपना विशिष्ट विकासात्मक प्रक्षेपवक्र है। यह सिद्धांत एक प्रजाति के भीतर व्यक्तियों में देखे गए विकासात्मक पैटर्न में निहित समानता पर प्रकाश डालता है।

7. सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत (Principle of General to Specific Responses):

सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत बताता है कि विकास के विभिन्न पहलुओं में, बच्चे शुरू में सामान्य या व्यापक प्रतिक्रियाओं का प्रदर्शन करते हैं और धीरे-धीरे उन्हें अधिक विशिष्ट और लक्षित क्रियाओं में परिष्कृत करते हैं। यह कम सटीक और सामान्यीकृत व्यवहारों से अधिक सटीक और विशिष्ट व्यवहारों की प्रगति का वर्णन करता है।

  1. सामान्य प्रतिक्रियाएँ (General Responses): इस सिद्धांत के अनुसार, बच्चे प्रारंभिक रूप से अपने प्रारंभिक विकास में सामान्य या सामान्यीकृत प्रतिक्रियाओं का प्रदर्शन करते हैं। इन प्रतिक्रियाओं में बड़े आंदोलनों या व्यापक क्रियाएं शामिल होती हैं जो शरीर के कई हिस्सों या उत्तेजनाओं की एक विस्तृत श्रृंखला को शामिल करती हैं। सामान्य प्रतिक्रियाओं में सटीकता और विशिष्टता का अभाव होता है।
  2. विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ (Specific Responses): जैसे-जैसे बच्चे विकसित होना और अनुभव प्राप्त करना जारी रखते हैं, वे अपनी प्रतिक्रियाओं को परिष्कृत करना शुरू करते हैं और अधिक विशिष्ट और लक्षित व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। विशिष्ट प्रतिक्रियाओं में अधिक केंद्रित और सटीक क्रियाएं शामिल होती हैं जो किसी विशेष प्रोत्साहन या लक्ष्य की ओर निर्देशित होती हैं। ये प्रतिक्रियाएँ विशिष्ट कार्यों या कार्यों पर नियंत्रण, समन्वय और महारत दिखाती हैं।

उदाहरण:

  • एक उदाहरण जो सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं के सिद्धांत को दर्शाता है, वह शिशुओं में कौशल तक पहुँचने और समझने का विकास है।
  • प्रारंभ में, जब एक शिशु किसी वस्तु तक पहुँचने का प्रयास कर रहा होता है, तो वह न केवल अपने हाथ बल्कि अपने अन्य अंगों को भी शामिल करते हुए सामान्य हरकतें कर सकता है। शिशु की क्रिया अपेक्षाकृत व्यापक और कम समन्वित होती है, जिसमें हाथ, पैर और शरीर की गतिविधियों का संयोजन शामिल होता है। यह एक सामान्य प्रतिक्रिया का प्रतिनिधित्व करता है।
  • जैसे-जैसे शिशु के मोटर कौशल विकसित होते हैं और उनके समन्वय में सुधार होता है, वे अधिक विशिष्ट और लक्षित प्रतिक्रिया प्रदर्शित करना शुरू करते हैं। वे विशेष रूप से अपना हाथ बढ़ाना सीखते हैं और वांछित वस्तु तक पहुँचने के लिए सूक्ष्म गति का उपयोग करते हैं। कई अंगों को शामिल करने वाले व्यापक आंदोलनों से अधिक सटीक हाथ आंदोलनों के लिए यह संक्रमण एक सामान्य प्रतिक्रिया से एक विशिष्ट प्रतिक्रिया की प्रगति का प्रतिनिधित्व करता है।
  • इसी तरह, भाषा के विकास में, एक बच्चा शुरू में अस्पष्ट ध्वनियाँ और बड़बड़ाता है, जिसे सामान्य प्रतिक्रियाएँ माना जा सकता है। जैसे-जैसे उनका भाषा कौशल उन्नत होता है, वे धीरे-धीरे विशिष्ट शब्दों को स्पष्ट रूप से स्पष्ट करना सीखते हैं, और अधिक विशिष्ट और लक्षित भाषण का प्रदर्शन करते हैं।

संक्षेप में, सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत सामान्य या व्यापक प्रतिक्रियाओं से अधिक विशिष्ट और लक्षित कार्यों के विकास की प्रगति पर प्रकाश डालता है। यह विकास के विभिन्न पहलुओं में देखा जा सकता है, जिसमें मोटर कौशल, भाषा अधिग्रहण और अन्य डोमेन शामिल हैं जहां बच्चे समय के साथ अपने व्यवहार और कार्यों को परिष्कृत करते हैं।

8. एकीकरण का सिद्धांत (Principle of Integration):

एकीकरण का सिद्धांत विकासात्मक प्रक्रिया पर प्रकाश डालता है जिसमें एक बच्चे के समग्र शरीर का विकास विशिष्ट भागों के विकास से पहले होता है, जिससे अंततः उन भागों का समन्वय और एकीकरण होता है। यह पूरे शरीर की गतिविधियों से लेकर शरीर के विभिन्न अंगों को शामिल करते हुए अधिक परिष्कृत और समन्वित क्रियाओं तक क्रमिक प्रगति पर जोर देता है।

  1. संपूर्ण शरीर का विकास (Whole Body Development): इस सिद्धांत के अनुसार, बच्चे विशिष्ट शरीर के अंगों या कौशल के विकास पर ध्यान केंद्रित करने से पहले शुरू में समग्र शरीर के विकास का अनुभव करते हैं। इसका मतलब यह है कि सकल मोटर कौशल, बड़े मांसपेशी समूहों और पूरे शरीर के आंदोलनों को शामिल करते हुए, ठीक मोटर कौशल से पहले हासिल किया जाता है जिसके लिए छोटे मांसपेशी समूहों पर अधिक सटीक नियंत्रण की आवश्यकता होती है।
  2. शरीर के अंगों का क्रमिक विकास (Sequential Development of Body Parts): जैसे-जैसे बच्चे विकसित होते रहते हैं, वे धीरे-धीरे अपना ध्यान शरीर के विशिष्ट अंगों या कौशलों के विकास की ओर केंद्रित करते हैं। एक बार जब वे पूरे शरीर की बुनियादी गतिविधियों को हासिल कर लेते हैं, तो वे विशिष्ट शरीर के अंगों या क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करके अपने कार्यों को परिष्कृत करना शुरू करते हैं। यह क्रमिक विकास बेहतर आंदोलनों की निपुणता और विशिष्ट कौशल के अधिग्रहण की अनुमति देता है।
  3. समन्वय और एकीकरण (Coordination and Integration): एकीकरण का सिद्धांत शरीर के विभिन्न अंगों और कौशलों के अंतिम समन्वय और एकीकरण पर भी जोर देता है। जैसे-जैसे बच्चे विकासात्मक चरणों के माध्यम से आगे बढ़ते हैं, वे अधिक जटिल क्रियाएं करने के लिए शरीर के विभिन्न अंगों के आंदोलनों को समन्वयित और एकीकृत करने की क्षमता प्राप्त करते हैं। यह समन्वय उनके समग्र मोटर कौशल को बढ़ाता है और कुशल और उद्देश्यपूर्ण आंदोलन की सुविधा प्रदान करता है।

उदाहरण:

  • एकीकरण के सिद्धांत को दर्शाने वाला एक उदाहरण शिशुओं में हाथ की गति का विकास है।
  • प्रारंभ में, शिशु अपने पर्यावरण के साथ बातचीत करने के लिए पूरे हाथ की हरकतों में संलग्न होते हैं, जैसे कि पहुंचना और स्वाइप करना। जैसा कि वे विकसित करना जारी रखते हैं, वे धीरे-धीरे अपने कार्यों को परिष्कृत करते हैं और विशिष्ट शरीर के अंगों के आंदोलनों को अलग करना सीखते हैं। इस मामले में, वे पूरे हाथ के आंदोलनों से हाथ और उंगलियों के अधिक सटीक आंदोलनों की ओर बढ़ते हैं।
  • एक बार जब वे अपने हाथों और उंगलियों को स्वतंत्र रूप से स्थानांतरित करने की क्षमता हासिल कर लेते हैं, तो वे समन्वित क्रियाओं को करने के लिए इन आंदोलनों को एकीकृत करते हैं। वे क्रिया को समर्थन देने और नियंत्रित करने के लिए अपने हाथों और बांहों की गति का उपयोग करते हुए अपनी उंगलियों से वस्तुओं को पकड़ना सीखते हैं। यह एकीकरण वस्तुओं में हेरफेर करने में अधिक निपुणता और नियंत्रण की अनुमति देता है।

सारांश में, एकीकरण का सिद्धांत पूरे शरीर के आंदोलनों से विशिष्ट शरीर के अंगों के शोधन और उन भागों के अंतिम समन्वय और एकीकरण के लिए विकासात्मक प्रगति पर प्रकाश डालता है। यह मोटर विकास के विभिन्न पहलुओं में देखा जा सकता है, जहां बच्चे शुरू में ठीक मोटर कौशल विकसित करने और विभिन्न शरीर के अंगों से जुड़े समन्वित आंदोलनों को प्राप्त करने से पहले सकल मोटर कौशल प्राप्त करते हैं।

9. व्यक्तिगत अंतर का सिद्धांत (Theory of Individual Differences):

व्यक्तिगत अंतर का सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी वृद्धि और विकास के संदर्भ में अद्वितीय और विशिष्ट है। यह बताता है कि बच्चों सहित कोई भी दो व्यक्ति समान नहीं हो सकते हैं या विकास के बिल्कुल समान पैटर्न प्रदर्शित नहीं कर सकते हैं। व्यक्तिगत भिन्नताओं में शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक पहलुओं सहित कई विशेषताएं शामिल हैं।

  1. व्यक्तियों की विशिष्टता (Uniqueness of Individuals): इस सिद्धांत के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति में अद्वितीय गुण, लक्षण, क्षमताएं और अनुभव होते हैं जो उनके व्यक्तित्व में योगदान करते हैं। ये व्यक्तिगत अंतर आनुवंशिक कारकों, पर्यावरणीय प्रभावों, व्यक्तिगत अनुभवों और दूसरों के साथ बातचीत के संयोजन से उत्पन्न होते हैं। नतीजतन, प्रत्येक व्यक्ति के विकास और विकास को उनके अपने विशिष्ट कारकों के सेट द्वारा आकार दिया जाता है।
  2. विकासात्मक प्रक्षेपवक्र में भिन्नता (Variation in Developmental Trajectories): व्यक्तिगत अंतर व्यक्तियों के बीच विकासात्मक प्रक्षेपवक्र की विविधता में प्रकट होते हैं। इसका मतलब यह है कि व्यक्ति अलग-अलग दरों पर प्रगति कर सकते हैं और अपनी वृद्धि और विकास में अलग-अलग रास्तों का अनुसरण कर सकते हैं। आनुवांशिकी, स्वभाव, पारिवारिक वातावरण, सांस्कृतिक प्रभाव और व्यक्तिगत रुचि जैसे कारक इन विविधताओं में योगदान करते हैं।
  3. व्यक्तिगत अंतरों की बहुआयामी प्रकृति (Multidimensional Nature of Individual Differences): व्यक्तिगत अंतर विकास के कई आयामों में विस्तारित होते हैं, जिनमें शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक पहलू शामिल हैं। ये आयाम परस्पर क्रिया करते हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, प्रत्येक व्यक्ति की अद्वितीय प्रोफ़ाइल में योगदान करते हैं। उदाहरण के लिए, एक बच्चा संज्ञानात्मक क्षमताओं में उत्कृष्ट हो सकता है लेकिन भावनात्मक विनियमन के साथ संघर्ष कर सकता है, जबकि दूसरा बच्चा सामाजिक कौशल में ताकत प्रदर्शित कर सकता है लेकिन अकादमिक क्षेत्रों में चुनौतियों का सामना कर सकता है।

उदाहरण:

  • व्यक्तिगत अंतर के सिद्धांत को दर्शाने वाला एक उदाहरण दो बच्चों के शैक्षणिक प्रदर्शन की तुलना है। आइए एक ही उम्र के दो बच्चों, सारा और एमिली पर विचार करें।
  • सारा असाधारण गणितीय क्षमताओं का प्रदर्शन करती है और तार्किक तर्क कौशल में उत्कृष्टता प्राप्त करती है। हालाँकि, उसका मौखिक कौशल औसत या औसत से थोड़ा कम हो सकता है। दूसरी ओर, एमिली उत्कृष्ट भाषाई और मौखिक कौशल प्रदर्शित करती है लेकिन गणितीय अवधारणाओं के साथ संघर्ष करती है। संज्ञानात्मक क्षमताओं में उनके व्यक्तिगत अंतर इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे दो बच्चों में अलग-अलग ताकत और कमजोरियां हो सकती हैं, भले ही वे एक ही उम्र के हों।
  • ये व्यक्तिगत अंतर विकास के विभिन्न पहलुओं में देखे जा सकते हैं, जिनमें शारीरिक विकास, बौद्धिक क्षमता, स्वभाव, व्यक्तित्व लक्षण और सामाजिक कौशल शामिल हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अद्वितीय प्रकृति को उजागर करते हुए, किसी भी दो व्यक्तियों के पास ताकत, कमजोरियों और विकासात्मक प्रक्षेपवक्रों का सटीक समान संयोजन नहीं होगा।

संक्षेप में, व्यक्तिगत भिन्नताओं का सिद्धांत व्यक्तियों की विशिष्टता और वृद्धि और विकास के उनके विशिष्ट पैटर्न पर जोर देता है। यह मानता है कि आनुवंशिकी, पर्यावरण और व्यक्तिगत अनुभव जैसे कारक प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तित्व में योगदान करते हैं। ये व्यक्तिगत अंतर विकास के कई आयामों में प्रकट होते हैं और परिणामस्वरूप व्यक्तियों के बीच विकासात्मक प्रक्षेपवक्र में भिन्नता होती है।

10. विकास रेखीय नहीं बल्कि वसंत के आकार का होता है (Development is not linear but spring-shaped):

कथन बताता है कि विकास की प्रक्रिया एक रेखीय और सीधे रास्ते का पालन नहीं करती है, बल्कि इसके बजाय एक वसंत के आकार जैसा दिखता है, जो विकास, प्रतिगमन और तेजी से परिवर्तन की अवधि का संकेत देता है।

  1. विकास की अवधि (Periods of Growth): एक वसंत के विस्तार के समान, विकास में विकास और प्रगति की अवधि शामिल होती है। इन चरणों के दौरान, व्यक्ति नए कौशल, ज्ञान और क्षमताएं प्राप्त करते हैं और अपने विकास के विभिन्न पहलुओं में प्रगति का अनुभव करते हैं। इन अवधियों को शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक डोमेन में ध्यान देने योग्य सुधार और प्रगति की विशेषता है।
  2. प्रतिगमन और झटके (Regression and Setbacks): बसंत के संकुचन या अनुबंध की तरह, विकास में प्रतिगमन या असफलता की अवधि भी शामिल हो सकती है। ये अवधि तब हो सकती है जब व्यक्ति अपने विकास में चुनौतियों, बाधाओं या अस्थायी कठिनाइयों का सामना करते हैं। यह बाहरी कारकों, व्यक्तिगत परिस्थितियों, या आंतरिक संघर्षों के कारण हो सकता है जो प्रगति में बाधा डालते हैं या विकास के कुछ क्षेत्रों में अस्थायी गिरावट का कारण बनते हैं।
  3. तेजी से परिवर्तन (Rapid Changes): वसंत के आकार के विकास का अर्थ यह भी है कि विकास और परिवर्तन कुछ चरणों में तेजी से हो सकते हैं। वसंत कैसे तेजी से विस्तार या अनुबंध कर सकता है, इसी तरह व्यक्तियों को उनकी विकासात्मक प्रगति में अचानक और महत्वपूर्ण बदलाव का अनुभव हो सकता है। तेजी से परिवर्तन की ये अवधि महत्वपूर्ण मील के पत्थर, विकासात्मक संक्रमण या विशिष्ट अनुभवों से प्रभावित हो सकती है जो उनके विकास के विभिन्न पहलुओं पर गहरा प्रभाव डालते हैं।

उदाहरण:

वसंत के आकार के रूप में विकास की अवधारणा को दर्शाने वाला एक उदाहरण बच्चों का उनके प्रारंभिक वर्षों के दौरान संज्ञानात्मक विकास है।

  • शैशवावस्था और प्रारंभिक बचपन के दौरान, बच्चे विभिन्न संज्ञानात्मक चरणों के माध्यम से प्रगति करते हैं, जैसे कि पियागेट के सिद्धांत के अनुसार सेंसरिमोटर, प्रीऑपरेशनल और कंक्रीट ऑपरेशनल चरण। यह विकास एक रेखीय प्रगति नहीं है, बल्कि तेजी से संज्ञानात्मक विकास, अस्थायी पठारों और सामयिक प्रतिगमन की अवधियों की विशेषता है।
  • उदाहरण के लिए, एक बच्चा अपनी भाषा के विकास में तेजी से वृद्धि का अनुभव कर सकता है, अपेक्षाकृत कम अवधि में नई शब्दावली और वाक्य संरचना प्राप्त कर सकता है। हालांकि, उन्हें समस्या समाधान या अमूर्त सोच जैसे अन्य संज्ञानात्मक डोमेन में अस्थायी झटके या धीमी प्रगति की अवधि का सामना करना पड़ सकता है।
  • संज्ञानात्मक विकास में ये उतार-चढ़ाव वसंत-आकार के पैटर्न के समान होते हैं, क्योंकि वे विकास की गैर-रैखिक प्रकृति को उजागर करते हुए विकास, प्रतिगमन और तेजी से परिवर्तन की अवधि को शामिल करते हैं।

संक्षेप में, विकास के वसंत-आकार की धारणा से पता चलता है कि यह एक रैखिक और निरंतर प्रक्रिया नहीं है, लेकिन इसमें विकास, असफलताओं और तेजी से परिवर्तन की अवधि शामिल है। यह अवधारणा विकास की गतिशील और उतार-चढ़ाव वाली प्रकृति को पहचानती है, जहां व्यक्ति अपने विकास के विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति, प्रतिगमन और तेजी से परिवर्तन की अवधि का अनुभव करते हैं।

11. विकास की भविष्यवाणी / पूर्वानुमेयता का सिद्धांत (Principle of Predictability of Development):

विकास की पूर्वानुमेयता का सिद्धांत बताता है कि बच्चे के विकास के विभिन्न पहलुओं को बारीकी से देखने और समझने से, उनके भविष्य के विकास और मील के पत्थर के बारे में भविष्यवाणी करना संभव है। यह सिद्धांत इस विचार पर जोर देता है कि विकास में लगातार पैटर्न और क्रम होते हैं जो बच्चे के विकासात्मक प्रक्षेपवक्र के बारे में उचित भविष्यवाणियां करने की अनुमति देते हैं।

  1. अवलोकन योग्य विकासात्मक पैटर्न (Observable Developmental Patterns): इस सिद्धांत के अनुसार, शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक जैसे विभिन्न डोमेन में बच्चे के विकास में देखने योग्य पैटर्न और क्रम होते हैं। एक बच्चे की प्रगति और मील के पत्थर की बारीकी से निगरानी और आकलन करके, इन पैटर्नों की पहचान करना और उनके भविष्य के विकास के संभावित पाठ्यक्रम की भविष्यवाणी करना संभव हो जाता है।
  2. विकासात्मक मील के पत्थर (Developmental Milestones): विकासात्मक मील के पत्थर विशिष्ट कौशल, व्यवहार या क्षमताओं को संदर्भित करते हैं जो आमतौर पर एक निश्चित आयु या विकास के चरण द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। ये मील के पत्थर बच्चे की प्रगति के मार्कर और संकेतक के रूप में काम करते हैं। इन मील के पत्थर के बच्चे की उपलब्धि को ट्रैक करके, पेशेवर, देखभाल करने वाले और शिक्षक बच्चे के भविष्य के विकास और फोकस या समर्थन के संभावित क्षेत्रों के बारे में उचित भविष्यवाणी कर सकते हैं।
  3. व्यक्तिगत विविधताएँ (Individual Variations): जबकि विकास की भविष्यवाणी मौजूद है, यह स्वीकार करना आवश्यक है कि विकास की गति और समय में व्यक्तिगत भिन्नताएँ हैं। प्रत्येक बच्चा अद्वितीय होता है और उसका अपना अनूठा प्रक्षेपवक्र हो सकता है, जो आनुवंशिकी, पर्यावरण और व्यक्तिगत अनुभवों जैसे कारकों से प्रभावित होता है। इसलिए, जबकि भविष्यवाणियां विकास के पैटर्न के आधार पर की जा सकती हैं, व्यक्तिगत अंतरों पर विचार करना और अपेक्षाओं में लचीलेपन की अनुमति देना महत्वपूर्ण है।

उदाहरण:

  • विकास की पूर्वानुमेयता के सिद्धांत को प्रदर्शित करने वाला एक उदाहरण बच्चों में भाषा के विकास की प्रगति है। बच्चे के भाषा अधिग्रहण कौशल को बारीकी से देखने और निगरानी करने से, पेशेवर और माता-पिता संभावित मील के पत्थर और बच्चे के चरणों की भविष्यवाणी कर सकते हैं।
  • उदाहरण के लिए, यदि कोई बच्चा छह महीने की उम्र के आसपास बड़बड़ाना और साधारण आवाजें निकालना शुरू कर देता है, तो यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि वे एक वर्ष की आयु के आसपास “माँ” या “दादा” जैसे अपने पहले शब्दों का उत्पादन करने के लिए प्रगति करेंगे। इसके बाद, वे धीरे-धीरे अधिक जटिल शब्दावली, वाक्य संरचना और अभिव्यंजक भाषा कौशल विकसित कर सकते हैं।
  • भाषा के विकास के विशिष्ट अनुक्रम और पैटर्न को समझकर, देखभाल करने वाले और शिक्षक बच्चे की भाषा के विकास को सुविधाजनक बनाने के लिए उचित सहायता और प्रोत्साहन प्रदान कर सकते हैं।

संक्षेप में, विकास की भविष्यवाणी के सिद्धांत से पता चलता है कि बच्चे के विकास के पैटर्न और अनुक्रमों को देखकर और समझकर, उनके भविष्य के विकास और मील के पत्थर के बारे में उचित भविष्यवाणी करना संभव है। जबकि व्यक्तिगत विविधताएं मौजूद हैं, विकासात्मक पैटर्न और मील के पत्थर की निगरानी बच्चे के चल रहे विकास के लिए फोकस और समर्थन के संभावित क्षेत्रों की पहचान करने में सहायता कर सकती है।

12. आनुवंशिकता और पर्यावरण के बीच सहभागिता का सिद्धांत (Principle of Interaction between Heredity and Environment):

आनुवंशिकता और पर्यावरण के बीच अंतःक्रिया का सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि बच्चे का विकास उनकी आनुवंशिक विरासत और आसपास के वातावरण के प्रभाव के बीच जटिल परस्पर क्रिया का परिणाम है। आनुवंशिकता और पर्यावरणीय कारक दोनों बच्चे के विकास को आकार देने में योगदान करते हैं, और पूरी तस्वीर को समझने में किसी भी पहलू की अवहेलना नहीं की जा सकती है।

  • अनुवांशिकता और अनुवांशिक विरासत (Heredity and Genetic Inheritance): आनुवंशिकता आनुवंशिक जानकारी और लक्षणों को संदर्भित करती है जो एक बच्चे को अपने जैविक माता-पिता और पूर्वजों से विरासत में मिलती है। ये अनुवांशिक कारक बच्चे की शारीरिक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विशेषताओं की एक श्रृंखला को प्रभावित करते हैं। आनुवंशिक लक्षणों में ऊंचाई, आंखों का रंग, और बालों के प्रकार जैसी भौतिक विशेषताएं शामिल हो सकती हैं, साथ ही कुछ बीमारियों या स्थितियों के लिए पूर्वसूचना भी शामिल हो सकती है। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आनुवंशिकता एक बच्चे के विकास की संपूर्णता को निर्धारित नहीं करती है, बल्कि वह आधार निर्धारित करती है जिस पर विकास होता है।
  • पर्यावरणीय प्रभाव (Environmental Influences): पर्यावरण में सभी बाहरी कारक शामिल हैं जो बच्चे को घेरते हैं और उसके साथ बातचीत करते हैं। इसमें भौतिक परिवेश, जैसे कि घर का वातावरण, पड़ोस, और संसाधनों तक पहुंच, साथ ही साथ सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव, जैसे परिवार की गतिशीलता, सहकर्मी संबंध, सामाजिक मानदंड और शैक्षिक अवसर शामिल हैं। ये पर्यावरणीय कारक बच्चे के विकास को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिसमें उनका संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक विकास शामिल है। पर्यावरण के अनुभव और अंतःक्रिया या तो आनुवंशिक लक्षणों और क्षमता की अभिव्यक्ति को बढ़ा या बाधित कर सकते हैं।
    पर्यावरण शब्द का प्रयोग पर्यावरण के लिए भी किया जाता है, जो व्यक्ति के जीवन और व्यवहार को प्रभावित करता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने पर्यावरण की व्याख्या इस प्रकार की है |
    According to Woodworth, “पर्यावरण में वे सभी बाहरी कारक शामिल हैं जिन्होंने व्यक्ति को उसके जीवन के प्रारंभ से ही प्रभावित किया है।
    According to Anastasi, “पर्यावरण वह सब कुछ है जो किसी व्यक्ति के जीन को छोड़कर हर चीज को प्रभावित करता है।”
  • डायनेमिक इंटरेक्शन (Dynamic Interaction): आनुवंशिकता और पर्यावरण के बीच बातचीत का सिद्धांत इस बात पर प्रकाश डालता है कि विकास केवल आनुवंशिकी या पर्यावरणीय कारकों द्वारा ही निर्धारित नहीं होता है। बल्कि, यह दोनों के बीच गतिशील परस्पर क्रिया है जो विकास के प्रक्षेपवक्र को आकार देती है। अनुवांशिक लक्षण इस बात को प्रभावित कर सकते हैं कि एक बच्चा अपने पर्यावरण के साथ कैसे प्रतिक्रिया करता है और बातचीत करता है, जबकि पर्यावरण अनुवांशिक लक्षणों की अभिव्यक्ति को संशोधित कर सकता है। इस गतिशील बातचीत के परिणामस्वरूप प्रत्येक बच्चे के लिए अद्वितीय विकासात्मक परिणाम हो सकते हैं, क्योंकि उनकी आनुवंशिक प्रवृत्ति विशिष्ट पर्यावरणीय संदर्भ के साथ परस्पर क्रिया करती है जिसमें वे बढ़ते और विकसित होते हैं।

D = E x H

P = E x H
D = Development
E = Environment.
H = Heredity,
P = Personality

उदाहरण:

  • कद के लिए आनुवंशिक प्रवृति वाले बच्चे पर विचार करें। यदि बच्चा पर्याप्त पोषण, स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच और सहायक घरेलू वातावरण वाले वातावरण में बड़ा होता है, तो उसकी ऊंचाई के लिए अपनी आनुवंशिक क्षमता तक पहुंचने की संभावना अधिक होती है। इसके विपरीत, यदि बच्चा सीमित संसाधनों, अपर्याप्त पोषण और खराब स्वास्थ्य देखभाल वाले वातावरण में बड़ा होता है, तो उसकी लंबाई क्षमता बाधित हो सकती है, और वे अपनी पूर्ण आनुवंशिक क्षमता तक नहीं पहुंच पाते हैं।
  • यह उदाहरण दिखाता है कि कैसे आनुवंशिकता और पर्यावरण के बीच की बातचीत एक बच्चे के शारीरिक विकास को आकार दे सकती है। ऊंचाई के लिए अनुवांशिक पूर्वाग्रह नींव निर्धारित करता है, लेकिन अंतिम परिणाम निर्धारित करने में पर्यावरणीय कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

संक्षेप में, आनुवंशिकता और पर्यावरण के बीच बातचीत का सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि एक बच्चे का विकास उनके माता-पिता से विरासत में मिले दोनों आनुवंशिक कारकों और आसपास के पर्यावरणीय प्रभावों से प्रभावित होता है। बच्चे की विकासात्मक यात्रा की जटिलता को समझने के लिए इन दो कारकों के बीच गतिशील परस्पर क्रिया को समझना आवश्यक है।

अंत में, हम कह सकते हैं कि पर्यावरण या पर्यावरण में वे सभी बाहरी तत्व या शक्तियाँ शामिल हैं जो माँ द्वारा गर्भाधान के ठीक बाद किसी व्यक्ति की वृद्धि और विकास को प्रभावित करती रहती हैं। जन्म से पहले मां की ऊर्जा क्षेत्र में होती है, मां जो कुछ भी खाती, करती, सोचती और महसूस करती है, उसका असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ता है। जन्म के बाद वातावरण से जुड़ी शक्तियां उसे चारों तरफ से प्रभावित करने लगती हैं। उन शक्तियों को दो अलग-अलग प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है, भौतिक और सामाजिक या सांस्कृतिक।

भोजन, पानी, जलवायु, घर, स्कूल, गाँव या शहर का वातावरण, और भौतिक सुविधाएँ – ये सभी पर्यावरणीय भौतिक शक्तियाँ कहलाती हैं, जबकि माता-पिता, परिवार के सदस्य, पड़ोसी, दोस्त और सहपाठी, शिक्षक, समुदाय और समाज के अन्य सदस्य। सदस्यों में सामाजिक और सांस्कृतिक बलों में संचार, परिवहन और मनोरंजन के साधन, धार्मिक स्थल, क्लब, पुस्तकालय, वाचनालय आदि शामिल हैं। इन सभी पर्यावरणीय शक्तियों का व्यक्ति के विकास और विकास के सभी पहलुओं जैसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक, नैतिक और सौंदर्य आदि पर पूर्ण प्रभाव पड़ता है। मां के गर्भ में जीवन शुरू करने से लेकर अंतिम सांस तक व्यक्ति इन शक्तियों से प्रभावित होता है।


बालक का शारीरिक विकास

(Child’s physical development)

1. शैशवावस्था (infancy) 0-2:

नीचे दिए गए तालिका में आपके द्वारा दिए गए आयु समयावधि के अनुसार बालों की विभिन्न आयु स्तरों को दिखाया गया है:

आयु समयावधि बालों की अवस्था
जन्म – 2 वर्ष शैशवावस्था
2-6 वर्ष पूर्व बाल्यावस्था
6 -12 वर्ष उत्तर बाल्यावस्था
12-18 वर्ष किशोरावस्था

यह आयु समयावधियाँ बालों के विभिन्न विकास चरणों को दर्शाती हैं। इन आयु समयावधियों में शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास के महत्वपूर्ण बदलाव होते हैं।

यहां एक अद्यतन तालिका है जिसमें जन्म के समय बच्चे की लंबाई, साथ ही चार महीने और एक वर्ष की उम्र के शिशुओं की ऊंचाई शामिल है:

Age Gender Length at Birth (inches) Height at 4 Months (inches) Height at 1 Year (inches)
Infancy Boys 20.5 23 – 24 28 – 30
Infancy Girls 20.3 23 – 24 28 – 30

कृपया ध्यान दें कि जन्म के समय लंबाई लड़कों के लिए 20.5 इंच और लड़कियों के लिए 20.3 इंच के रूप में सूचीबद्ध है। ऊंचाई चार महीने और एक वर्ष की उम्र में अनुमानित मान के रूप में प्रदान की जाती है।

लड़कों और लड़कियों के लिए जन्म के समय बच्चे का औसत वजन दर्शाने वाली तालिका यहां दी गई है:

Gender Weight at Birth (kg) Weight at Birth (Pounds)
Boys 3.0 – 3.5 6.61 – 7.72
Girls 3.3 7.13

कृपया ध्यान दें कि लड़कों के लिए प्रदान की जाने वाली वजन सीमा अनुमानित है, जिसमें 3.0 किलोग्राम निचला छोर और 3.5 किलोग्राम उच्च अंत है। इसी तरह लड़कियों का वजन 3.3 किलो बताया गया है। पाउंड में संबंधित वजन की गणना 1 किलो = 2.20462 पाउंड के रूपांतरण कारक के आधार पर की जाती है, जिसमें वजन दो दशमलव स्थानों पर होता है।

Note – चार माह का स्वस्थ शिशु जन्म के भार का दुगना वजन प्राप्त कर लेता है।  1 वर्ष का शिशु जन्म के भार का तिगुना वजन प्राप्त कर लेता है। इसके बाद आधा पौड प्रतिमाह के हिसाब से बढ़ता है। 5 वर्षो में 38 – 48 pound हो जाता है
सिर व मस्तिष्क: भ्रूणावस्था में विकास सिर से पैर की ओर होता है। इसलिए सिर का size बाकी शरीर से बड़ा होता है।
हृदय की धड़कन : शिशु का हृदय छोटा होता है। धमनिया बड़ी होती है। प्रथम माह शिशु के हृदय की धडकन 140 प्रति मिनट धड़कता है|

नीचे दिए गए तालिका में आपके द्वारा दिए गए आयु समयावधि के अनुसार सामान्य नाड़ी दरों को दर्शाया गया है:

आयु समयावधि सामान्य नाड़ी दर (BPM – बीट प्रति मिनट)
शिशु (12 महीने तक) 100-160
बच्चा (1-3 वर्ष) 90-150
प्रीस्कूलर (3-5 वर्ष) 80-140

यह नाड़ी दरें आयु समयावधियों के लिए मानक माने जाते हैं, और इनमें थोड़ी सी विभिन्नता हो सकती है। यदि बच्चे की नाड़ी दर किसी आयु समयावधि में इन सीमाओं के बाहर होती है, तो एक चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए।

2. पूर्व बाल्यावस्था (Early childhood) 2-6:

  • शारीरिक वृद्धि में गति मंद हो जाती है। इस समय लम्बाई औसतन 1.8-8″ की दर से हर साल बढ़ती है।
  • 5 साल का बच्चा जन्म की लम्बाई का दुगना हो जाता है।
  • पूर्व बाल्यावस्था में भार में वृद्धि मंद गति से धीरे र होती है। क्योंकि बच्चे कि अधिकांश ऊर्जा खेलने, दौडने, कूदने, भागने में लग जाती है। 2-6 वर्ष के बच्चे के आयु तक नेत्र गोलक (eye ball) पूर्ण रूप से विकसित हो जाता है। Ball)

3. उत्तर बाल्यावस्था (Later childhood) 6-12 :

विशेषता जानकारी
लम्बाई शारीरिक विकास लम्बाई धीमी गति से बढ़ती है। प्रतिवर्ष 2 inch की वृद्धि होती है। लगभग (106cm per inch) तक वृद्धि होती है।
वजन वजन 36kg से 43kg के मध्य रहता है। लड़कियों का वजन लड़को से ज्यादा होता है
मस्तिष्क विकास बालक के मस्तिष्क का विकास 6 साल तक 90% हो जाता है। 10 वर्ष तक 95% तक हो जाता है। और भार लगभग (1260g)
हृदय 1 मिनट में 72 बार धड़कना
दांत 5 या 6 साल में दूध के दाँत गिरने शुरू हो जाते है, 12-13 वर्षो में बालक के 21-28 दाँत स्थायी हो जाते है। दांतों का सर्वाधिक विकास उसी अवस्था में होता है।
भार इस अवस्था में मांसपेशियों का भार शरीर के भार का 27-80% तक हो जाता है।

4. किशोरावस्था में शारीरिक विकास (Adolescence) 12-18:

नीचे दिए गए तालिका में  जानकारी को दिखाया गया है:

विशेषता जानकारी
लम्बाई इस अवस्था में लम्बाई में वृद्धि तीव्र गति से होती है। 11-14 वर्ष में लड़कियों की लम्बाई लडको की तुलना में अधिक बढ़ती है। लड़कियों की लम्बाई में वृद्धि 18 वर्ष के बाद रुक जाती है
भार मांसपेशियों का भार शरीर के भार का 63% तक हो जाता है। 15 वर्ष तक लड़कियों का भार अधिक होता है एवं 15 वर्ष के बाद लड़कों का भार लड़कियों से अधिक होता है।
हड्डी शरीर में 207 हड्डियाँ होती हैं। हड्डी का विकास पेराथायराइड ग्रंथि से संबंधित होता है।
दाँत स्थायी दाँत – 28, प्रजादांत (अक्ल दाढ़) – 14 भी निकल आती है। लड़कियों में प्रजादांत पहले आते है।
शारीरिक विकास शारीरिक विकास में सबसे पहले नाड़ी संस्थान का विकास होता है।

Growth-And-Development-Notes-In-Hindi
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विकास के प्रकार

(Types of development)

मानव विकास और प्रगति के विभिन्न पहलुओं और क्षेत्रों के आधार पर विकास को कई प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। यहाँ विकास के कुछ सामान्य रूप से पहचाने जाने वाले प्रकार हैं:

  1. शारीरिक विकास (Physical Development): शारीरिक विकास से तात्पर्य किसी व्यक्ति के शरीर की संरचना, मोटर कौशल और शारीरिक क्षमताओं में परिवर्तन और उन्नति से है। इसमें ऊंचाई और वजन में वृद्धि, मोटर समन्वय और नियंत्रण में सुधार, ठीक और सकल मोटर कौशल का विकास, संवेदी धारणा में परिवर्तन और अंगों और शारीरिक प्रणालियों की परिपक्वता शामिल है।
    उदाहरण: एक बच्चा रेंगना, खड़ा होना और अंततः चलना सीखता है जो शारीरिक विकास का प्रतिनिधित्व करता है। जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता है, वे अपने शरीर की गतिविधियों पर अधिक नियंत्रण विकसित करते हैं, अपने संतुलन और समन्वय में सुधार करते हैं, और ताकत और फुर्ती हासिल करते हैं।
  2. संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development): संज्ञानात्मक विकास मानसिक प्रक्रियाओं के विकास और प्रगति को संदर्भित करता है, जिसमें सीखने, स्मृति, समस्या-समाधान, तर्क और भाषा अधिग्रहण शामिल हैं। इसमें बौद्धिक क्षमताओं का विकास, सोच कौशल, सूचना प्रसंस्करण और दुनिया के बारे में ज्ञान और समझ का अधिग्रहण शामिल है।
    उदाहरण: गणित की एक जटिल समस्या को हल करने वाला एक छात्र संज्ञानात्मक विकास को प्रदर्शित करता है। जैसे-जैसे वे अपनी शिक्षा के माध्यम से प्रगति करते हैं, वे तार्किक तर्क कौशल, महत्वपूर्ण सोच क्षमता और अमूर्त अवधारणाओं को समझने और लागू करने की क्षमता विकसित करते हैं।
  3. भावनात्मक विकास (Emotional Development): भावनात्मक विकास भावनाओं, भावनाओं के विकास और नियमन और किसी की भावनाओं को पहचानने, व्यक्त करने और प्रबंधित करने की क्षमता से संबंधित है। इसमें भावनात्मक जागरूकता, सहानुभूति, आत्म-जागरूकता, आत्म-नियमन और दूसरों के साथ भावनात्मक संबंधों की स्थापना का विकास शामिल है।
    उदाहरण: एक किशोर स्वस्थ तरीके से अपनी भावनाओं को पहचानना और व्यक्त करना सीखता है, भावनात्मक विकास प्रदर्शित करता है। वे अपनी स्वयं की भावनाओं के बारे में अधिक जागरूक हो जाते हैं, तनाव का प्रबंधन करना सीखते हैं, दूसरों के प्रति सहानुभूति विकसित करते हैं और स्वस्थ भावनात्मक संबंध स्थापित करते हैं।
    भाव को किसी व्यक्ति का भाव भी कहा जाता है। भावना द्वारा व्यक्ति के व्यवहार की जाँच की जाती है। भय, क्रोध, प्रेम, घृणा, ईर्ष्या आदि भावों के रूप हैं। यदि किसी व्यक्ति में भावनात्मक विकास नहीं होता है तो उसका सामाजिक विकास भी अधूरा रह जाता है। इसलिए यदि कोई व्यक्ति दुखी व्यक्ति को देखकर प्रसन्न नहीं होता है और सुखी व्यक्ति दुखी व्यक्ति को देखकर प्रसन्न होता है तो समझो कि उसका भावनात्मक और सामाजिक विकास अधूरा है। भावनात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों को निम्न प्रकार से वर्णित किया जा सकता है।
    1. थकान (Fatigue): थकान मुख्य कारक है जो भावनात्मक विकास को प्रभावित करता है। वह प्राय: चिड़चिड़ा हो जाता है। इसलिए वह गलत निर्णय लेता है। और उसका भावनात्मक विकास रुक जाता है। नतीजतन, बच्चों में अवांछित भावनात्मक व्यवहार की पुनरावृत्ति होती है।
    2. विद्यालय वातावरण (School Environment): बच्चे का भावनात्मक विकास विद्यालय में होता है। जब बच्चा पहली बार स्कूल जाता है। इसलिए उन्हें वहां के हालात की जानकारी नहीं है। वह आपको असहज और असुरक्षित महसूस कराता है। वह वहां से भागने की कोशिश भी करता है। इस अवस्था में शिक्षकों की सहकारी शैक्षिक गतिविधियाँ बच्चे के भावनात्मक विकास को दिशा प्रदान करती हैं।
    3. स्वास्थ्य और शारीरिक विकास (Health and Physical Development): हम सभी को पता होना चाहिए कि बच्चों के स्वास्थ्य और शारीरिक विकास के बीच गहरा संबंध है, ये शारीरिक होते हैं, ये शारीरिक गलतियां कई तरह की भावनात्मक मुश्किलें पैदा करती हैं। कुछ बच्चे बीमारी या अस्वस्थता के कारण भावनात्मक विकास से दूर हो जाते हैं। और उनका भावनात्मक विकास नहीं होता है।
    4. उम्र (Age): उम्र का असर बच्चे के भावनात्मक विकास पर भी पड़ता है जैसे – जैसे बच्चे की उम्र बढ़ती है। तो उसमें भावनात्मक परिपक्वता भी आने लगती है।
  4. सामाजिक विकास (Social Development): सामाजिक विकास में सामाजिक संपर्क और संबंधों में शामिल होने के लिए आवश्यक सामाजिक कौशल, व्यवहार और दृष्टिकोण का अधिग्रहण शामिल है। इसमें संचार कौशल, सामाजिक मानदंड और शिष्टाचार, सहयोग, सहानुभूति, परिप्रेक्ष्य लेना, और साथियों, परिवार और बड़े समुदाय के साथ संबंध बनाने और बनाए रखने की क्षमता का विकास शामिल है।
    उदाहरण: अन्य बच्चों के साथ सहकारी खेल में शामिल एक बच्चा सामाजिक विकास को प्रदर्शित करता है। साथियों के साथ बातचीत के माध्यम से, वे भविष्य के सामाजिक संबंधों की नींव बनाते हुए, मोड़ लेना, खिलौनों को साझा करना, प्रभावी ढंग से संवाद करना और सामाजिक स्थितियों को नेविगेट करना सीखते हैं।
    जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। तथा जन्म से लेकर मृत्यु तक उसका सामाजिक विकास होता रहता है। बालक में सामाजिक गुणों के विकास की प्रक्रिया को समाजीकरण भी कहा जाता है। सामाजिक विकास का तात्पर्य बच्चे की अपने और दूसरों के साथ समायोजन करने की क्षमता से है। सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले अनेक कारक हैं। जैसे पहला परिवार यानी बच्चा गर्भ से बाहर आते ही परिवार का सदस्य बन जाता है, परिवार का आकार, माता-पिता के बीच संबंध, उनका रवैया, परिवार का आर्थिक स्तर आदि कई हैं। परिवार से जुड़े परिवार के पहलू। साइमण्ड के अनुसार परिवार के 3 प्रमुख कार्य हैं।
    1. परिवार बच्चे के सामाजिक विकास का पहला और मुख्य साधन है।
    2. परिवार संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले जाने का साधन है।
    3. परिवार व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का माध्यम है।
    दूसरा, बच्चे के सामाजिक विकास में स्कूल भी एक महत्वपूर्ण कारक है। एक जिम्मेदार व्यक्ति बनाने में विद्यालय की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। विद्यालय में निरंकुश वातावरण सामाजिक विकास को प्रभावित करता है, वहीं दूसरी ओर लोकतांत्रिक वातावरण सामाजिक विकास में सहायक होता है।तीसरा, समुदाय का सामाजिक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है। पंचम भाव तथा मित्रों का प्रभाव सामाजिक विकास को भी प्रभावित करता है। बच्चे का सामाजिक विकास बच्चे को मिलने वाले वातावरण के अनुसार होता है। छठा, सामाजिक विकास का बौद्धिक विकास से गहरा संबंध है। बौद्धिक विकास वह मंच है। जहां व्यक्ति खुद को समाज के साथ एडजस्ट कर लेता है। इस प्रकार यह सामाजिक विकास का एक अनिवार्य तत्व है। तो कहा जा सकता है। वह बच्चा है जो बौद्धिक रूप से विकसित होता है। उसका सामाजिक विकास भी ठीक होता है।
  5. नैतिक विकास (Moral Development): नैतिक विकास किसी व्यक्ति के नैतिक सिद्धांतों, मूल्यों और सही गलत में अंतर करने की क्षमता के निर्माण से संबंधित है। इसमें नैतिक तर्क, सहानुभूति, नैतिक निर्णय और सामाजिक और नैतिक मानदंडों की समझ का विकास शामिल है। नैतिक विकास सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत कारकों से प्रभावित होता है।
    उदाहरण: सामुदायिक सेवा में सक्रिय रूप से भाग लेने वाला एक युवा वयस्क और सामाजिक न्याय के लिए चिंता प्रदर्शित करना नैतिक विकास को दर्शाता है। वे नैतिक जिम्मेदारी की भावना विकसित करते हैं, सामाजिक मुद्दों से अवगत होते हैं और अपने नैतिक मूल्यों के अनुरूप कार्य करते हैं।
  6. भाषा का विकास (Language Development): भाषा के विकास का तात्पर्य भाषा कौशलों के अधिग्रहण और शोधन से है, जिसमें सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना शामिल है। इसमें शब्दावली, व्याकरण, वाक्यविन्यास, और मौखिक और लिखित भाषा का उपयोग करके विचारों और विचारों को समझने और व्यक्त करने की क्षमता का प्रगतिशील विकास शामिल है।
    उदाहरण: एक बच्चा अपनी मूल भाषा बोलना और समझना सीखता है, भाषा के विकास का उदाहरण है। वे शब्दावली हासिल करते हैं, व्याकरणिक संरचनाएं सीखते हैं, और सरल शब्दों से वाक्य बनाने तक की प्रगति करते हैं, जिससे वे दूसरों के साथ प्रभावी ढंग से संवाद कर पाते हैं।
  7. मनोसामाजिक विकास (Psychosocial Development): एरिक एरिकसन द्वारा प्रस्तावित मनोसामाजिक विकास, व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक विकास और सामाजिक वातावरण के बीच परस्पर क्रिया पर जोर देता है। इसमें पहचान का निर्माण, मनोसामाजिक संघर्षों का समाधान, स्वयं की भावना का विकास और समाज के भीतर एक सकारात्मक सामाजिक पहचान और भूमिका की स्थापना शामिल है।
    उदाहरण: अपनी व्यक्तिगत पहचान की खोज और स्थापना करने वाला एक किशोर मनोसामाजिक विकास को प्रदर्शित करता है। वे आत्म-चिंतन से गुजरते हैं, अपने मूल्यों और विश्वासों को स्थापित करते हैं, व्यक्तिगत पहचान की भावना बनाते हैं, और अपने परिवार और समाज के भीतर अपनी भूमिका निभाते हैं।

इस प्रकार के विकास आपस में जुड़े हुए हैं और परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। वे एक साथ होते हैं और जीवन के विभिन्न चरणों में अलग-अलग डिग्री के जोर के साथ, एक व्यक्ति के जीवन काल में बातचीत करते हैं। स्वस्थ विकास को बढ़ावा देने और व्यक्तियों में इष्टतम विकास को सुविधाजनक बनाने के लिए इस प्रकार के विकास को समझना महत्वपूर्ण है।

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विकास की अवस्थाएँ

(Stages of Development)

विकास के चरण किसी व्यक्ति के जीवन काल में अलग-अलग अवधियों या चरणों को संदर्भित करते हैं, जो विकास, परिवर्तन और मील के पत्थर के विशिष्ट पैटर्न की विशेषता है। यहाँ विकास के कुछ सामान्य रूप से मान्यता प्राप्त चरण हैं:

  1. प्रसवपूर्व अवस्था (Prenatal Stage): प्रसवपूर्व अवस्था में गर्भाधान से लेकर जन्म तक की अवधि शामिल होती है। इसमें गर्भ में भ्रूण का विकास और वृद्धि शामिल है। इस चरण को आगे तीन ट्राइमेस्टर में विभाजित किया गया है, प्रत्येक को महत्वपूर्ण शारीरिक और विकासात्मक परिवर्तनों द्वारा चिह्नित किया गया है।
    उदाहरण: एक गर्भवती महिला अपने गर्भ में बच्चे की गतिविधियों को महसूस करती है और बच्चे की वृद्धि और विकास की निगरानी के लिए प्रसवपूर्व जांच के लिए जाती है।
  2. शैशवावस्था (Infancy): शैशवावस्था जन्म से लेकर लगभग 2 वर्ष की आयु तक होती है। इस चरण के दौरान, शिशु तेजी से शारीरिक विकास का अनुभव करते हैं, बुनियादी मोटर कौशल विकसित करते हैं, भाषा की क्षमता हासिल करते हैं और प्राथमिक देखभाल करने वालों के साथ जुड़ाव बनाते हैं।
    उदाहरण: एक नवजात शिशु चूसना सीख रहा है और वस्तुओं को अपने हाथों से पकड़ने की क्षमता विकसित कर रहा है, धीरे-धीरे लुढ़कने, बैठने और अंततः रेंगने की ओर बढ़ रहा है।
  3. प्रारंभिक बचपन (Early Childhood): प्रारंभिक बचपन आमतौर पर 2 से 6 वर्ष की अवधि को संदर्भित करता है। इस स्तर पर बच्चे अपने मोटर कौशल को परिष्कृत करना जारी रखते हैं, अधिक जटिल भाषा कौशल विकसित करते हैं, कल्पनाशील खेल में संलग्न होते हैं, और स्व-देखभाल कार्यों में बढ़ती स्वतंत्रता दिखाते हैं। वे स्मृति और समस्या समाधान जैसे सामाजिक कौशल और संज्ञानात्मक क्षमताओं को भी विकसित करना शुरू करते हैं।
    उदाहरण: पूर्वस्कूली में भाग लेने वाला एक 4 साल का बच्चा, गिनना, अक्षरों को पहचानना और साथियों के साथ कल्पनाशील खेल में शामिल होना सीख रहा है।
  4. मध्य बाल्यावस्था (Middle Childhood): मध्य बाल्यावस्था 6 से 12 वर्ष की आयु तक फैली हुई है। इस अवस्था के दौरान, बच्चे औपचारिक स्कूली शिक्षा में प्रवेश करते हैं और अपनी संज्ञानात्मक क्षमताओं, भाषा कौशल और सामाजिक अंतःक्रियाओं को और विकसित करते हैं। वे संरचित शिक्षा में संलग्न होते हैं, मित्रता स्थापित करते हैं, और व्यक्तिगत पहचान की भावना विकसित करना शुरू करते हैं।
    उदाहरण: एक 8 साल का बच्चा प्राथमिक विद्यालय शुरू कर रहा है, नए दोस्त बना रहा है, संगठित खेल या पाठ्येतर गतिविधियों में भाग ले रहा है, और अपने पढ़ने और लिखने के कौशल का विकास कर रहा है।
  5. किशोरावस्था (Adolescence): किशोरावस्था बचपन और वयस्कता के बीच की संक्रमणकालीन अवस्था है, जो आमतौर पर 12 से 18 वर्ष की आयु तक होती है। इसमें महत्वपूर्ण शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक परिवर्तन शामिल होते हैं। किशोर यौवन का अनुभव करते हैं, तेजी से शारीरिक विकास से गुजरते हैं, अपनी पहचान का पता लगाते हैं, अधिक उन्नत संज्ञानात्मक कौशल विकसित करते हैं, और जटिल सामाजिक संबंधों को नेविगेट करते हैं।
    उदाहरण: एक 14 वर्षीय युवावस्था से गुजर रहा है, विकास की गति और हार्मोनल बदलाव जैसे शारीरिक परिवर्तनों का अनुभव कर रहा है, रोमांटिक आकर्षण विकसित कर रहा है, और अपने व्यक्तिगत हितों और शौक की खोज कर रहा है।
  6. प्रारंभिक वयस्कता (Early Adulthood): प्रारंभिक वयस्कता लगभग 18 से 40 वर्ष की आयु तक की अवधि को शामिल करती है। यह आगे की पहचान के विकास, उच्च शिक्षा का पीछा करने, करियर स्थापित करने, घनिष्ठ संबंध बनाने और महत्वपूर्ण जीवन विकल्प बनाने का समय है। इस स्तर पर व्यक्ति भी महत्वपूर्ण व्यक्तिगत विकास का अनुभव कर सकते हैं और अपने मूल्यों और विश्वासों का पता लगा सकते हैं।
    उदाहरण: एक 22 वर्षीय व्यक्ति कॉलेज से स्नातक है, अपनी पहली नौकरी शुरू कर रहा है, वित्तीय स्वतंत्रता स्थापित कर रहा है, और अपने करियर और भविष्य की योजनाओं के बारे में निर्णय ले रहा है।
  7. मध्य वयस्कता (Middle Adulthood): मध्य वयस्कता आमतौर पर 40 से 65 वर्ष की आयु को कवर करती है। यह स्थिरता और निरंतर व्यक्तिगत और व्यावसायिक विकास की विशेषता है। व्यक्ति अक्सर कैरियर की उन्नति, पितृत्व और अपने समुदायों में योगदान पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इस चरण में कई जिम्मेदारियों और बदलावों को प्रबंधित करना शामिल हो सकता है, जैसे वृद्ध माता-पिता की देखभाल करना और सेवानिवृत्ति के लिए योजना बनाना।
    उदाहरण: एक 45 वर्षीय वयस्क अपने करियर में आगे बढ़ रहा है, काम और पारिवारिक जिम्मेदारियों को संतुलित कर रहा है, और शायद करियर में बदलाव या आगे की शिक्षा हासिल करने पर विचार कर रहा है।
  8. देर से वयस्कता (Late Adulthood): देर से वयस्कता, आमतौर पर 65 वर्ष की आयु के आसपास शुरू होती है, सेवानिवृत्ति और वृद्धावस्था का एक चरण है। इसमें उम्र बढ़ने से जुड़े शारीरिक और संज्ञानात्मक परिवर्तनों को समायोजित करना, जीवन के अनुभवों को प्रतिबिंबित करना और स्वास्थ्य और कल्याण से संबंधित मुद्दों को नेविगेट करना शामिल है। इस चरण में अंतर-पीढ़ी संबंध और बाद के जीवन में अर्थ और उद्देश्य खोजना भी शामिल हो सकता है।
    उदाहरण: सामाजिक गतिविधियों और शौक में संलग्न एक 70 वर्षीय रिटायर, परिवार और दोस्तों के साथ संबंध बनाए रखना, और उम्र बढ़ने से जुड़े शारीरिक परिवर्तनों को अपनाना, जैसे सहायक उपकरणों का उपयोग करना या पुरानी स्वास्थ्य स्थितियों का प्रबंधन करना।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये चरण सामान्य दिशानिर्देश हैं, और व्यक्ति अलग-अलग दरों पर और अद्वितीय अनुभवों के साथ उनके माध्यम से प्रगति कर सकते हैं। इसके अलावा, सांस्कृतिक और प्रासंगिक कारक विकास के प्रत्येक चरण के भीतर विशिष्ट विशेषताओं और संक्रमणों को प्रभावित कर सकते हैं।


विकास के चरणों का विद्वानों का वर्गीकरण

(Scholarly classification of stages of development)

Sayle’s Classification:

Stage Age Range
Infancy 1-5 years
Childhood 5-12 years
Adolescence 12-18 years

Kolsenic’s Classification:

Stage Age Range
Pre-natal Conception to birth
Infancy Birth to 3 or 4 weeks
Early infancy 1 or 2 months to 15 months
Late infancy 15 months to 30 months
Early childhood 2 1/2 years to 5 years
Middle Childhood 5 years to 9 years
Late childhood 9 to 12 years
Adolescence 12 to 21 years

Study-based Classification:

Stage Age Range
Infancy Birth to 5 years
Childhood 6 to 12 years
Adolescence 12 to 19 years

General Psychology Classification:

Stage Age Range
Infancy Birth to 6 years
Childhood 6 to 12 years
Adolescence 12 to 18 years
Adulthood After 18 years

कृपया ध्यान दें कि प्रदान की गई जानकारी को दिए गए वर्गीकरण के आधार पर तालिकाओं में व्यवस्थित किया गया है, और विभिन्न वर्गीकरणों में विभिन्न चरणों के बीच कुछ आयु सीमाएँ ओवरलैप (अधिव्यापन) हो सकती हैं।

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मानव विकास के चरण / अवस्थाएं

(Stages of Human Development)

मानव विकास एक आजीवन प्रक्रिया है जिसमें विकास और परिपक्वता के विभिन्न चरण शामिल हैं। भारतीय विचारकों द्वारा पहचाने गए ये चरण शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक परिवर्तनों को समझने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करते हैं जो व्यक्ति अपने पूरे जीवन में करते हैं। मानव विकास के सात चरण निम्नलिखित हैं:

  1. Pregnancy गर्भावस्था (गर्भाधान से जन्म तक): इस चरण के दौरान, निषेचित अंडा एक भ्रूण और अंततः भ्रूण में विकसित होता है। बच्चे को मां के गर्भ में पूरी तरह से विकसित होने में लगभग नौ महीने लगते हैं। बच्चे के विकास के लिए प्रसवपूर्व अवधि महत्वपूर्ण है और इसमें तेजी से कोशिका विभाजन और अंग निर्माण शामिल है।
    उदाहरण: एक गर्भवती महिला शारीरिक और हार्मोनल परिवर्तनों का अनुभव करती है, जैसे मॉर्निंग सिकनेस और वजन बढ़ना। गर्भनाल के माध्यम से विकासशील भ्रूण माँ से पोषक तत्व और ऑक्सीजन प्राप्त करता है।
    बीजावस्था (Seed stage) – गर्भधारण से 2 सप्ताह तक।
    भ्रूणावस्था (Embryonic stage)  – 2 सप्ताह से  2 माह तक
    गर्भावस्था (Pregnancy) –  2 माह से जन्म तक
  2. Infancy शैशवावस्था (जन्म से 5 वर्ष तक): शैशवावस्था प्रारंभिक बाल्यावस्था की अवस्था है, जो जन्म से लेकर लगभग पाँच वर्ष की आयु तक होती है। यह अवधि महत्वपूर्ण शारीरिक, संज्ञानात्मक और सामाजिक-भावनात्मक विकास की विशेषता है। शिशु तेजी से मोटर कौशल, भाषा और सामाजिक संपर्क क्षमता हासिल करते हैं।
    उदाहरण: एक नवजात शिशु धीरे-धीरे करवट लेना, बैठना, रेंगना और अंततः चलना सीख जाता है। वे बड़बड़ाना और ध्वनियों की नकल करना भी शुरू कर देते हैं, जो भाषा के विकास की दिशा में शुरुआती कदम हैं।
  3. Childhood बचपन (5 वर्ष से 12 वर्ष): बचपन वह अवस्था है जो पाँच वर्ष से बारह वर्ष की आयु तक फैली हुई है। यह निरंतर विकास और अन्वेषण की अवधि है। बच्चे अपने शारीरिक कौशल को निखारते हैं, अपने ज्ञान का विस्तार करते हैं और साथियों के साथ सामाजिक संबंध विकसित करते हैं।
    उदाहरण: एक बच्चा स्कूल जाना शुरू करता है और पढ़ना, लिखना और अंकगणित जैसे मौलिक कौशल सीखता है। वे कल्पनाशील खेल में संलग्न होते हैं, मित्रता बनाते हैं, और सामाजिक मानदंडों और मूल्यों को समझने लगते हैं।
  4. Adolescence किशोरावस्था (12 वर्ष से 18 वर्ष): किशोरावस्था बचपन और वयस्कता के बीच एक संक्रमणकालीन चरण है। यह यौवन के कारण भावनात्मक और सामाजिक विकास के साथ-साथ महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तनों द्वारा चिह्नित है। किशोर स्वतंत्रता के लिए प्रयास करते हैं, अपनी पहचान स्थापित करते हैं और आत्म-जागरूकता का अनुभव करते हैं।
    उदाहरण: एक किशोर शारीरिक परिवर्तनों से गुजरता है जैसे कि माध्यमिक यौन विशेषताओं का विकास, वृद्धि की गति और हार्मोनल उतार-चढ़ाव। वे सहकर्मी दबाव का अनुभव कर सकते हैं, रोमांटिक रिश्तों का पता लगा सकते हैं और अपने भविष्य के लक्ष्यों को आकार देना शुरू कर सकते हैं।
  5. Puberty यौवन (18 वर्ष से 25 वर्ष): यौवन किशोरावस्था के भीतर एक विशिष्ट चरण है जो उस अवधि को संदर्भित करता है जब व्यक्ति यौन परिपक्वता का अनुभव करते हैं। यह आमतौर पर लगभग 12 से 14 वर्ष की आयु में शुरू होता है और लगभग 18 से 25 वर्ष तक जारी रहता है। इस चरण में हार्मोनल परिवर्तन, प्रजनन विकास और संज्ञानात्मक परिपक्वता शामिल है।
    उदाहरण: एक युवा वयस्क शारीरिक परिवर्तनों का अनुभव कर सकता है जैसे पुरुषों में आवाज का गहरा होना और महिलाओं में मासिक धर्म की शुरुआत। वे अपनी स्वयं की पहचान स्थापित करने, करियर विकल्प बनाने और अंतरंग संबंध बनाने के माध्यम से नेविगेट करते हैं।
  6. Adulthood वयस्कता (25 वर्ष से 55 वर्ष): वयस्कता वह अवस्था है जो लगभग 25 वर्ष से 55 वर्ष की आयु तक होती है। यह जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे करियर, रिश्ते और व्यक्तिगत विकास में स्थिरता और परिपक्वता की विशेषता है। व्यक्ति जिम्मेदारियां ग्रहण करते हैं और अपने दीर्घकालिक लक्ष्यों को प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
    उदाहरण: वयस्कता में एक व्यक्ति उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकता है, करियर स्थापित कर सकता है, शादी कर सकता है या दीर्घकालिक साझेदारी बना सकता है और एक परिवार शुरू कर सकता है। वे अक्सर वित्तीय स्वतंत्रता में वृद्धि का अनुभव करते हैं और समाज में विभिन्न भूमिकाएँ निभाते हैं।
  7. Old Age वृद्धावस्था (मृत्यु तक 55 वर्ष): वृद्धावस्था, जिसे वरिष्ठ या जराचिकित्सा अवस्था के रूप में भी जाना जाता है, लगभग 55 वर्ष से शुरू होती है और मृत्यु तक जारी रहती है। यह चरण शारीरिक गिरावट, संज्ञानात्मक परिवर्तन और जीवन भर के अनुभवों से प्राप्त ज्ञान से जुड़ा है। व्यक्तियों को सेवानिवृत्ति, स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं और बदलती सामाजिक भूमिकाओं का सामना करना पड़ सकता है।
    उदाहरण: एक वरिष्ठ नागरिक उम्र से संबंधित स्वास्थ्य स्थितियों, शारीरिक सहनशक्ति में कमी और काम से सेवानिवृत्ति का अनुभव कर सकता है। वे सामाजिक संबंधों को बनाए रखने, शौक पूरा करने और अपने ज्ञान और ज्ञान को युवा पीढ़ी तक पहुंचाने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।

निष्कर्ष: मानव विकास के चरण विकास और परिपक्वता के विभिन्न चरणों को समझने के लिए एक ढांचा प्रदान करते हैं जो व्यक्ति अपने पूरे जीवन में करते हैं। जन्मपूर्व अवधि से वृद्धावस्था तक, प्रत्येक चरण व्यक्तिगत विकास के लिए अद्वितीय चुनौतियाँ, मील के पत्थर और अवसर लाता है। इन चरणों को पहचानने और समझने से व्यक्तियों, परिवारों और समुदायों को उनकी जीवन यात्रा में विभिन्न बिंदुओं पर व्यक्तियों की भलाई का समर्थन और पोषण करने में मदद मिल सकती है।

मानव विकास की अवस्थाओं के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद पाये जाते हैं। परन्तु अधिकांश विद्वान मानव विकास की निम्नलिखित चार अवस्थाओं को स्वीकार करते हैं।

  1. शैशवावस्था – जन्म से 6 वर्ष तक की अवस्था
  2. बाल्यावस्था – 6 वर्ष से 12 वर्ष
  3. किशोरावस्था – 12 से 18 वर्ष
  4. वयस्कता – 18 से मृत्यु तक

शिक्षा मनोविज्ञान में केवल प्रथम तीन अवस्थाएँ ही महत्वपूर्ण होती हैं, अतः इन तीनों अवस्थाओं के विकास का अध्ययन शिक्षा मनोविज्ञान में किया जाता है।

  1. शैशवावस्था (Infancy): जन्म से 6 वर्ष तक की अवस्था को शैशवावस्था कहते हैं। इस अवस्था में लगभग 5 वर्ष की आयु से तीव्र विकास होता है। इस अवस्था में दोहराने और नकल करने की प्रवृत्ति होती है। यह चरण भाषा सीखने का सबसे अच्छा चरण है। और इस अवस्था में बच्चा देखकर सीखने लगता है। अर्थात् इस अवस्था में समाजीकरण की प्रवृत्ति पायी जाती है। कहा जाता है कि शिक्षा की दृष्टि से शैशवावस्था का विश्वास अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह वह अवस्था है। इससे शिक्षक, माता-पिता और समाज के लोगों का बच्चे पर बहुत प्रभाव पड़ता है। और बच्चा नकल करके सीखने की कोशिश करता है। अनुकरण विधि बच्चों को सीखने के लिए सर्वोत्तम विधि है।
  2. बचपन (Childhood): यह जीवन का वह चरण है जो 6 वर्ष से 12 वर्ष तक रहता है। इस चरण को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है। 6 से 9 वर्ष तक के बच्चों में तर्क शक्ति और सोचने की क्षमता में वृद्धि होती है। जहां बच्चा शैशवावस्था में तीव्र गति से सीखता है। वहीं बचपन में यह गति धीमी हो जाती है, जिससे वैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चे के सीखने के क्षेत्र में वृद्धि होती है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि इस अवस्था में शिक्षकों को बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षण विधियों का उपयोग करना चाहिए।
  3. किशोरावस्था (Adolescence): यह अवस्था जो 12 वर्ष से शुरू होती है और किशोरावस्था की 18 वर्ष तक जारी रहती है। इसे कहते हैं इस अवस्था में बच्चा परिपक्वता की ओर बढ़ने लगता है। और उनकी ऊंचाई और वजन तेजी से बढ़ता है, लेकिन लड़कियों में लड़कों की तुलना में ऊंचाई, वजन और वजन तेजी से बढ़ता है। यही विश्वास है। जिसमें प्रजनन अंगों का विकास होता है। और लड़के और लड़कियों में अर्थात एक दूसरे के विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। इस अवस्था को जीवन में तूफान अवस्था कहा जाता है। क्योंकि कई सर्वे बताते हैं कि इस अवस्था में लड़के-लड़कियों में यौन समस्याएं पाई जाती हैं और वे ड्रग्स और अपराध की ओर रुख करते हैं।

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In Short

(संक्षेप में)

प्रारंभिक बचपन (Early childhood) (2 – 7)

  • जीवन का एक अनूठा समय
  • कठिन समय
  • खिलौनों का चरण
  • स्वर्ण युग
  • उत्सुकता / जिज्ञासु / प्रश्न पूछना
  • जिद्दी / अवज्ञाकारी
  • महत्वपूर्ण ध्यान (अहम केंद्रित)
  • वैचारिक अवस्था (सम्प्रत्यात्मक अवस्था)
  • पूर्वस्कूली उम्र  (पूर्व विद्यालय अवस्था)

देर से बचपन (Late childhood) (7 – 12)

  • जीवन की उत्पत्ति काल
  • टोली / गिरोह की अवस्था
  • प्रारंभिक अवस्था
  • रचनात्मकता/सृजनात्मकता की ओर झुकाव
  • नैतिकता की स्थिति
  • कामेच्छा/libido शांत
  • मूर्त चिंतन
  • लड़कियों का शारीरिक विकास लड़कों की अपेक्षा अधिक होता है।

किशोरावस्था (Adolescence) (12 – 20)

  • गहन भावना / तीव्र संवेग
  • तनाव, तूफान, संघर्ष की स्थिति
  • जीवन का वसंत काल
  • Swag/टशन क्रांति
  • मौन ध्यान/अर्मुत चिंतन
  • व्यक्तिगत पूजा
  • तेजी से शारीरिक परिवर्तन
  • स्त्री/पुरूष भूमिका निभाना।

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विकास और विकास को प्रभावित करने वाले कारक

(Factors Affecting Growth and Development)

एक बच्चे की वृद्धि और विकास विभिन्न कारकों से प्रभावित होता है जो उनकी शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक प्रगति को आकार देते हैं। इन कारकों को समझना मानव विकास की बहुमुखी प्रकृति में अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकता है। निम्नलिखित 12 तत्व और कारक हैं जो एक बच्चे की वृद्धि और विकास को प्रभावित कर सकते हैं:

  1. पोषण (Nutrition): बच्चे के विकास के लिए उचित पोषण महत्वपूर्ण है। प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, खनिज, लवण और विटामिन का पर्याप्त सेवन शारीरिक और मानसिक विकास में सहायक होता है। गर्भावस्था के दौरान और जीवन भर अच्छा पोषण समग्र स्वास्थ्य को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
    उदाहरण: एक बच्चा जो आवश्यक पोषक तत्वों सहित संतुलित और पौष्टिक आहार प्राप्त करता है, खराब पोषण वाले बच्चे की तुलना में स्वस्थ शारीरिक विकास और संज्ञानात्मक विकास का अनुभव करने की अधिक संभावना है।
  2. बुद्धि (Intelligence): बुद्धि या बौद्धिक क्षमताओं का स्तर बच्चे के विकास के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करता है। उच्च बुद्धि वाले बच्चों में नई चीजें सीखने की उनकी तत्परता और परिपक्वता के कारण तेजी से विकास होता है।
    उदाहरण: उच्च बुद्धि वाला बच्चा कम बुद्धि वाले बच्चे की तुलना में उन्नत भाषा कौशल, समस्या सुलझाने की क्षमता और जटिल अवधारणाओं को समझने की अधिक क्षमता प्रदर्शित कर सकता है।
  3. रेस (Race): नस्लीय मतभेद शारीरिक विशेषताओं, रंग, आकार, मानसिक क्षमताओं और बुद्धि सहित विकास को प्रभावित कर सकते हैं। वैज्ञानिकों का सुझाव है कि विभिन्न जातियों के व्यक्ति अपनी मानसिक क्षमताओं और बुद्धि में भिन्नता प्रदर्शित कर सकते हैं।
    उदाहरण: अध्ययनों से पता चला है कि अलग-अलग नस्लीय पृष्ठभूमि के व्यक्तियों में अलग-अलग संज्ञानात्मक ताकत और क्षमताएं हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि कुछ नस्लीय समूह विशिष्ट शैक्षणिक विषयों या बौद्धिक डोमेन में उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं।
  4. रोग और चोटें (Diseases & Injuries): गर्भावस्था के दौरान या विकास के बाद के चरणों में रोग और चोटें बच्चे के विकास और विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती हैं। गंभीर बीमारियां और मानसिक आघात शारीरिक और मानसिक परिपक्वता में बाधा डाल सकते हैं, जबकि एक स्वस्थ बच्चा सामान्य रूप से विकसित होता है और उचित समय पर मील के पत्थर तक पहुंचता है।
    उदाहरण: जो बच्चे पुरानी बीमारियों या चोटों का अनुभव करते हैं, उन्हें शारीरिक विकास, संज्ञानात्मक विकास और समग्र कल्याण में देरी का सामना करना पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, पुरानी श्वसन स्थिति वाले बच्चे में सीमित शारीरिक सहनशक्ति और फेफड़ों की क्षमता कम हो सकती है।
  5. पारिवारिक वातावरण (Family Environment): पारिवारिक वातावरण बच्चे के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। माता-पिता-बच्चे का रिश्ता, बच्चे-माता-पिता का रिश्ता, जन्म का क्रम, परिवार का आकार और पालन-पोषण के तरीके जैसे कारक बच्चे के विकास को आकार देने में योगदान करते हैं।
    उदाहरण: एक बच्चा जो एक सहायक और पोषण करने वाले पारिवारिक वातावरण में बड़ा होता है, जहां खुला संचार, सकारात्मक सुदृढीकरण और भावनात्मक स्थिरता होती है, उसमें आत्म-सम्मान, सामाजिक कौशल और समग्र कल्याण की एक मजबूत भावना विकसित होने की संभावना अधिक होती है।
  6. आस-पड़ोस का वातावरण (Neighborhood Environment): वह वातावरण जिसमें बच्चा रहता है, पड़ोस सहित, उनके विकास को प्रभावित कर सकता है। सुरक्षित और उत्तेजक परिवेश तक पहुंच के साथ एक सकारात्मक पड़ोस का वातावरण, अच्छे समाजीकरण के अवसर और सकारात्मक सहकर्मी संबंध स्वस्थ विकास में योगदान कर सकते हैं।
    उदाहरण: जो बच्चे अच्छी तरह से बनाए गए पार्कों, मनोरंजक सुविधाओं और सामाजिक संपर्क और जुड़ाव को बढ़ावा देने वाले सामुदायिक कार्यक्रमों के पड़ोस में बड़े होते हैं, वे वंचित या असुरक्षित पड़ोस में रहने वाले बच्चों की तुलना में बेहतर शारीरिक स्वास्थ्य, सामाजिक कौशल और समग्र विकास करते हैं।
  7. स्कूल का माहौल (School Environment): स्कूल का माहौल बच्चे के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि वे वहां काफी समय बिताते हैं। एक सकारात्मक स्कूल वातावरण जो पर्याप्त शैक्षिक अवसर प्रदान करता है, सहायक शिक्षक और एक अनुकूल सीखने का वातावरण समग्र विकास को बढ़ावा दे सकता है।
    उदाहरण: एक बच्चा जो कुशल शिक्षकों, एक आकर्षक पाठ्यक्रम और पाठ्येतर गतिविधियों के साथ एक अच्छी तरह से सुसज्जित स्कूल में जाता है, उसके पास संज्ञानात्मक क्षमता, सामाजिक कौशल और स्कूल समुदाय के भीतर अपनेपन की भावना विकसित करने का अवसर होता है।
  8. सांस्कृतिक वातावरण (Cultural Environment): समाज में प्रचलित सांस्कृतिक मानदंड और मूल्य बच्चे के विकास को प्रभावित कर सकते हैं। प्रत्येक संस्कृति के अपने रीति-रिवाज, विश्वास और सामाजिक अपेक्षाएँ होती हैं, जो बच्चे के पालन-पोषण को आकार देती हैं और उनके विकास को प्रभावित करती हैं।
    उदाहरण: सामूहिकता और सत्ता के प्रति आज्ञाकारिता पर जोर देने वाली संस्कृतियों में पले-बढ़े बच्चे सत्ता के आंकड़ों के अनुरूपता और सम्मान को प्राथमिकता दे सकते हैं। इसके विपरीत, व्यक्तिवाद और स्वतंत्रता को बढ़ावा देने वाली संस्कृतियों में पले-बढ़े बच्चे स्वायत्तता और आत्म-अभिव्यक्ति की अधिक समझ विकसित कर सकते हैं।
  9. आनुवंशिकता (Heredity): आनुवंशिकता बच्चे के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शारीरिक विशेषताएं, जैसे ऊंचाई, आंखों का रंग, और चेहरे की विशेषताएं, साथ ही बुद्धि और स्मृति जैसी मानसिक क्षमताएं, माता-पिता और पूर्वजों से विरासत में मिली जीन से प्रभावित होती हैं।
    उदाहरण: लंबे कद वाले माता-पिता के बच्चों में ऊंचाई के लिए आनुवंशिक प्रवृत्ति होने की संभावना अधिक होती है और वे समान शारीरिक विशेषताओं का प्रदर्शन कर सकते हैं। इसी तरह, बौद्धिक उत्कृष्टता के इतिहास वाले परिवारों में जन्म लेने वाले बच्चे संज्ञानात्मक क्षमताओं के लिए उच्च क्षमता प्राप्त कर सकते हैं।
  10. ग्रंथि स्राव (Gland Secretion): शरीर की अंतःस्रावी ग्रंथियों द्वारा हार्मोन का स्राव शारीरिक और मानसिक विकास दोनों को प्रभावित कर सकता है। विकास और परिपक्वता के विभिन्न पहलुओं में थायरोक्सिन, टेस्टोस्टेरोन और एस्ट्रोजन जैसे हार्मोन आवश्यक भूमिका निभाते हैं।
    उदाहरण: थायरॉयड ग्रंथि से थायरोक्सिन हार्मोन का अपर्याप्त स्राव संज्ञानात्मक हानि और अवरुद्ध शारीरिक विकास का कारण बन सकता है। इसके विपरीत, किशोरावस्था में टेस्टोस्टेरोन का अत्यधिक स्राव पुरुषों में माध्यमिक यौन विशेषताओं के विकास में योगदान देता है, जैसे कि चेहरे के बाल विकास।
  11. विभिन्न प्रकार के रोग (Different Types of Diseases): विभिन्न रोग, विशेष रूप से गर्भावस्था के दौरान होने वाले, बच्चे के विकास और विकास को प्रभावित कर सकते हैं। मातृ रोग, संक्रमण और कुछ आनुवंशिक स्थितियां बच्चे के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती हैं।
    उदाहरण: रूबेला या साइटोमेगालोवायरस जैसे मातृ संक्रमण, बच्चे में विकासात्मक देरी और जन्म दोष पैदा कर सकते हैं। इसी तरह, डाउन सिंड्रोम जैसी स्थितियों के परिणामस्वरूप संज्ञानात्मक हानि और विशिष्ट शारीरिक विशेषताएं हो सकती हैं।
  12. लैंगिक अंतर (Gender Difference): लड़के और लड़कियों की वृद्धि और विकास में अंतर्निहित अंतर होते हैं। शारीरिक और हार्मोनल परिवर्तन प्रत्येक लिंग में अलग-अलग होते हैं, जिससे विकास के पैटर्न में भिन्नता आती है।
    उदाहरण: किशोरावस्था के दौरान, लड़कियां आमतौर पर लड़कों की तुलना में तेजी से विकास और शारीरिक परिपक्वता का अनुभव करती हैं। लड़कियां उच्च स्तर की भावनात्मक परिपक्वता और मौखिक कौशल भी प्रदर्शित कर सकती हैं, जबकि लड़के कुछ स्थानिक और मोटर क्षमताओं में उत्कृष्टता प्राप्त करते हैं।

निष्कर्ष: कई कारक बच्चों की वृद्धि और विकास को प्रभावित करते हैं, उनके शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक प्रक्षेपवक्र को आकार देते हैं। ये कारक, पोषण और बुद्धि से लेकर परिवार और सांस्कृतिक वातावरण तक, मानव विकास की बहुमुखी प्रकृति में परस्पर क्रिया करते हैं और योगदान करते हैं। इन प्रभावों को समझना सहायक वातावरण बनाने में सहायता कर सकता है जो बच्चों के लिए इष्टतम वृद्धि और विकास को बढ़ावा देता है।


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